Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ककक
ተተተተተኛ, ቀተቀ†††††††
उलटा दिखाई दे रहा है। क्या कारण है - इसका ? क्या तुम्हारी धर्म से श्रद्धा हट गई ? सुदर्शन आसन से उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़ कर शुकदेवजी से बोला ;
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'मैने विनयमूल धर्म स्वीकार कर लिया है ।
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किसके पास ? किसने भरमाया तुझे "-- आचार्य ने पूछा ।
तीर्थंकर चरित्र သရေးရာများကိုာာာာာာာန်းပွဲ
-" निर्ग्रथाचार्य महर्षि थावच्चापुत्र अनगार के उपदेश से प्रभावित हो कर में श्रमणोपासक बना । वे सन्त महान् त्यागी हैं । उनका धर्म श्रेष्ठ है, उद्धारक है और आराधना करने योग्य है ।"
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'चल मेरे साथ में देखता हूँ तेरे गुरु को मैं उनसे धर्म का अर्थ पूछूंगा, प्रश्न करूँगा । यदि उन्होंने मेरे प्रश्नों का यथार्थ उत्तर दिया, तो में स्वयं उन्हें वन्दननमस्कार करूँगा और यदि वे मेरे प्रश्नों का ठीक उत्तर नहीं दे सके तो निरुत्तर कर के उनका दंभ प्रकट कर दूंगा " -- परिव्राजकाचार्य ने कहा ।
पूछा
आचार्य शुकदेवजी अपने सहस्र परिव्राजकों और सुदर्शन सेठ के साथ श्रीथावच्चापुत्र अनगार के स्थान पर पहुँचे । समीप जाते ही आचार्य शुक ने "भंते ! आपके मत में यात्रा है ? यापनीय है ? अव्यावाध है ? प्रामुक विहार है ? 'हाँ शुक ! मेरे यात्रा भी है, यापनीय, अव्यावाध और प्रामुक विहार भी है " - अनगार महर्षि बोले ।
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आपके यात्रा कौन-सी है। - शुकदेवजी ने पूछा ।
"ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और संयमादि में मन, वचन और काया के योगों
"
को योजित रखना मेरी यात्रा है'
-नगार महर्षि ने कहा । – शुकदेवजी ने पूछा !
आपके यापनीय क्या है
"यापनीय दो प्रकार का है- इन्द्रिय और नोइन्द्रिय ( मन ) । मेरी श्रो दि पांचों इन्द्रियाँ मेरे वशीभूत हैं, नियंत्रित हैं और मेरे क्रोध मान-माया और लोभ क्षीण हो चुके हैं, उपशान्त हैं, उदय में नहीं है। यह मेरा नोइन्द्रिय यापनीय है अर्थात् इन्द्रियें और क्रोधादि कषाय मेरे नियन्त्रण में है । यह मेरे यापनीय है "--अनगार महात्मा ने कहा ।
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". 'भगवन् ! आपके अव्यावाध क्या है" पुनः प्रश्न ।
" मेरे वात-पित्त-कफ और सन्निपातादि रोगातंक उदय में नहीं है ( कमी रोगातंक हो भी जाय तो मेरी आत्मा प्रशांत रहती है । रोग मेरी साधना में बाधक नहीं बनता ) यह मेरा अव्याबाध है ।'
"
" 'भगवन् ! आपके प्रासुक-विहार क्या है ?"
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