Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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शैलक- राजर्षि का शिथिलाचार
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यहाँ आओ अपन सब साथ ही प्रव्रजित होंगे" - राजा ने उन्हें बिदा किया और युवराज मंडुक का राज्याभिषेक कर के राज्य पर स्थापन किया । राज्याधिकार प्राप्त होने पर भूतपूर्वं शैलक नरेश ने अपने पुत्र वर्तमान नरेश से दीक्षा की अनुमति मांगी। मंडुक महाराज ने अपने पिता का अभिनिष्क्रमण उत्सव किया और शैलक नरेश तथा पंथकादि ५०० मन्त्रियों ने प्रव्रज्या ग्रहण की। शैलक मुनिराज ने ग्यारह अंगों का श्रुत ज्ञान सीखा और संयम-तप से आत्मा को प्रभावित करते हुए विचरने लगे । आचार्यश्री शुकदेव महर्षि ने शैलक राजर्षि को पंथक आदि पाँच सौ शिष्य प्रदान किये। आचार्य शुकदेवजी, ग्रामानुग्राम विचरते रहे और जब अपना अन्तिम समय निकट जाना, तो एक सहस्र शिष्यों के साथ पुण्डरीक पर्वत पर पधारे और अनशन कर के घातिकर्मों को नष्ट किया, केवलज्ञानकेवलदर्शन प्राप्त किया यावत् सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए ।
शैलक - राजर्षि का शिथिलाचार
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शैलक राजर्षि संयम और तप की आराधना करते हुए विचर रहे थे । उनका शरीर सुकुमार था और सुखोपभोग में पला हुआ था । संयम साधना करते हुए रूखे-सूखे, तुच्छ, रस विहीन, स्वादहीन, न्यूनाधिक ठण्डा और अरुचिकर आहार मिलने तथा भूख के समय भोजन नहीं मिलने आदि से उनके शरीर में रोग उत्पन्न हो गए । चमड़ी शुष्क रूक्ष बन गई । पित्तत्पन्न दाहज्वर और खुजली से उम्र एवं असहनीय वेदना होने लगी । उनका शरीर सूख कर दुर्बल हो गया। वे विचरते हुए शैलकपुर के उद्यान में पधारे। परिषद् वन्दन करने आई । मडुक राजा भी आया और वन्दन - नमस्कार कर पर्युपासना करने लगा ॥
राजा ने राजर्षि का उग्र रोग और शुष्क शरीर देख कर निवेदन किया;
भगवन् ! में आपकी मर्यादा के अनुसार योग्य चिकित्सकों से औषध-भेषज से चिकित्सा करवाऊँगा । आप मेरी यानशाला में पधारिये और निर्जीव एवं निर्दोष भय्यासंस्तारक ग्रहण कर के वहीं रहिये ।"
राजर्षि ने राजा की प्रार्थना स्वीकार की और दूसरे ही दिन, नगर में प्रवेश कर, राजा की यानशाला में जा कर रह गए। राजा ने चिकित्सकों को बुला कर कहा- "तुम महात्मा की निर्जीव एवं निर्दोष औषधादि से चिकित्सा करो। "
वैद्यों ने राजर्षि के रोग का निदान किया और उनकी मर्यादा के अनुकूल औषधी
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