Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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देवकी देवी का सन्देह
६१५ मलयचचकमकककककककककककककककककककककककककककककककककककक
थी। जब सुलमा किशोरी-बालिका थी, तब एक मविष्यवेत्ता ने कहा था कि-"सुलसा मृत-वन्ध्या ह गा ।" भविष्यवाणी को निष्फल करने के लिए सुलसा, हरिगैगमेषी देव की आराधना करने लगी। वह प्रात:काल स्नान कर के गीली-साड़ी युक्त पुष्प ले कर हरिणगमेषी देव की प्रतिमा के आगे फूलों का ढेर करतो और वन्दन-नमस्कार करने के बाद अन्य कार्य करती । दीर्घकाल की आराधना से प्रसन्न हो कर देव प्रकट हुआ और सुलसा से बोला--"देवानुप्रिये ! तुम मृत-वन्ध्या ही रहोगी। इस कम-फल को मैं अन्यथा नहीं कर सकता। किन्तु तुम्हारे जन्मे हुए मृत पुत्र, मैं अन्य सद्य-प्रसूता महिला के पास रख दूंगा और उसके जीवित पुत्र तुम्हारे पास ले आऊँगा । इस प्रकार तुम्हारी इच्छा पूरी हो जायमी।"
यथासमय सुलसा के लग्न नागसेन के साथ हुए और सुखोपभोग करते उनके अनुक्रम से छह पुत्र हुए । छहों मृत, किन्तु दूसरी महिला के जीवित जन्मे पुत्रों से परिवर्तित। वे अत्यन्त सुन्दर थे। उनके नाम इस प्रकार थे.---१ अनीकसेन २ अनंतसेन ३ अजितसेन ४ अनिहतरिषु ५ देवसेन और ६ शत्रुसेन । युवावस्था प्राप्त होने पर उन छहों के बत्तीसबत्तीस सुन्दर कुमारिकाओं के साथ लग्न किये। वे सभी सुखपूर्वक भोग-भोगते हुए विचरते थे।
देवकी देवी का सन्देह
ग्रामानुग्राम विचरते हुए भ० अरिष्टनेमिजी पद्दिलपुर पधारे । अनीकसेनादि छहों बन्धुओं ने भगवान का धर्मोपदेश सुना और प्रतिबोध पा कर प्रवजित हो गए। जिस दिन वे दीक्षित हुए, उसी दिन से निरन्तर बेले-बेले तप करते हुए जीवन बिताने का उन ग्रहों ने अभिग्रह किया। भगवान् अरिष्टनेमिजी ग्रामानुग्राम विचरते हुए द्वारिका पधारे। तपस्वी मुनि श्री अनी कसेनजी आदि छहों ने बेले के पारणे के दिन, भगवान् की आज्ञा ले कर दो-दो के तीन संघाटक पृथक-पृथक निकले और ऊँच-नीच-मध्यम कुलों में निर्दोष भिक्षा के लिए घूमने लगे। उनमें से एक संघाड़ा महारानी देवकी देवी के भवन में पहुंचा। तपस्वी-मुनियों को अपने भवन में आते देख कर देवकी देवी अत्यंत प्रसन्न हुई और सातआठ चरण सामने जा कर भक्तिपूर्वक वन्दन-नमस्कार किया। फिर वह भोजनशाला में आई और सिंहकेसरी मोदक से मुनियों को प्रतिलाभित कर आदर पूर्वक बिदा किये।
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