Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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६३४ . . $$$
तीर्थङ्कर चरित्र $$ $$$$$
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वीरक राजकुमारी को अपने झोंपड़े में लाया और खटिया विछा कर बिठा दिया। राजकुमारी का हृदय दुःख ए क्लेश से परिपूर्ण था। वह वीरक पर भी कुपित थी। वीरक उसका आज्ञाकारी सेवक बना हुआ था। दो दिन बाद श्रीकृष्ण ने वीरक को वला कर पूछा
" केतुमंजरी तेरे घर का सभी कार्य करती है या नहीं ?"
~~" नहीं, महाराज ! में उसका आज्ञाकारी सेवक हूँ। वह तो मुझ पर रुष्ट ही रहती है । मैने तो आपकी आज्ञा का पालन किया है। इसमें मेरा क्या दोष है ? और मेरे पास उस छप्पर, टूटी बाट फटी गुदडी और फूटे बरतनों के अतिरिक्त है ही क्या, जिससे मैं उसे सुखी रख सकूँ? मैं उसके योग्य सुविधा...........
--"चप ! तु उससे अपने घर का सभी काम कराया कर । यदि तेने उससे काम नहीं लिया, तो तुझे कारागृह में बन्द कर दूंगा।"
वीरक घर आया और राजकुमारी से बोला ;
"अब उठ और घर का काम कर । झंटे जा कर पानी लें आ और धान पीस कर रोटी बनी । खा-पी कर फिर कपड़ा बुनना है ।"
"ऐ दरिद्र. हीन. दष्ट ! त मझे काम करने का हती है ? तुझे लज्जा नहीं आती । चल हट मेरे सामने से '--आँखें चढ़ा कर लाल नेत्रों से देखती हुई केतुमंजरी ने कहा।
वीरक ने राजकुमारी के दो-चार हाथ जमा दिये और बोला-"तु मेरी पत्नी है। मैं तेरा पति हूँ। इतना घमण्ड क्यों करती है ? मेरे यहाँ तो तुझे वह सभी काम करना पड़ेगा, जो मेरी जाति की दूसरी स्त्रियें करती है"--वीरक ने पतिपन के गर्व के साथ कहा।
राजकुमारी एक दरिद्र के हाथ से, जिससे वह घृणा करती थी, पिट गई। जीवन में ऐसी घड़ी कभी नहीं आई थी। वह वहां से निकल कर राज-भवन में आई और पिता के चरणों में गिर कर रोने लगी । श्रीकृष्ण ने कहा--'सेविकापन का जो कर्तव्य है, वह तो निभाना ही पड़ेगा । तेरी इच्छा ही से विका बनने की थी। अब मैं क्या करूँ ?" ।
*"नहीं, नहीं, अब एक पल के लिए भी मुझे सेविका नहीं रहना है । मेरी भूल हुई । मुझे क्षमा करें और इस दुःखद स्थिति से उबार कर मेरी अन्य बहिनों के समान मुझे भी प्रव्रज्या दिलवा दें।"
श्रीकृष्ण ने वीरक को अनुमत कर के राजकुमारी केतुमंजरी को प्रव्रज्या दिलाई। उसके साथ अन्य राजकुमारियों ने भी प्रव्रज्या ग्रहण की। केतुमंजरी का उदाहरण अन्य
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