Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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थावच्चापुत्र की दीक्षा
राजकुमारियों के लिए शिक्षा का कारण बना † ।
थावच्चापुत्र की दीक्षा
ग्रामानुग्राम विचरते हुए भगवान् अरिष्टनेमिजी पुनः द्वारिका नगरी के निकट रेवतक पर्वत के नन्दनवन उद्यान में पधारे। भगवान् का आगमन जान कर महाराजाधिराज श्रीकृष्णचन्द्र ने सेवकों को आज्ञा दी कि सुधर्म सभा में जा कर 'कौमुदी' नामक भेरी बजाओ । भेरी का गम्भीर एवं मधुर नाद सम्पूर्ण द्वारिका तथा बाहर के वन-उपवन, गिरि शिखिर और गुफाओं तक में फैल गया । भेरीनाद सुन कर जनता सुसज्जित हो कर राजप्रसाद में एकत्रित हुई। सभी के साथ तथा सेना सहित महाराजाधिराज की भव्य सवारी अगवान् को वन्दन करने चली । वन्दन - नमस्कार के पश्चात् भगवान् ने धर्मोपदेश दिया । द्वारिका में 'थावच्चा' नामकी एक गृहस्वामिनी रहती थी । वह ऋद्धि-सम्पन्न, बुद्धिमती, शक्ति सामर्थ्ययुक्त एवं प्रभावशालिनी थी। राज्य में उसका आदर होता था । उसके इकलौता पुत्र था, जिसका नाम उसी के नाम पर थावच्चापुत्र' रखा गया था । यावच्चापुत्र भी रूप सम्पन्न और भव्य आकृति वाला था । माता ने पुत्र का विवाह बत्तीस कुमारियों के साथ किया था। वे सभी श्रेष्ठि-कुल की रूप, यौवन आकृति और गुणों से उत्तम थी । उनके साथ थावच्चापुत्र भोग भोगता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा था । भगवान का पदार्पण जान कर वह भी उपस्थित हुआ और उपदेश सुन कर संसार से विरक्त हो गया । घर आ कर उसने माता का चरण स्पर्श किया और प्रव्रज्या ग्रहण करने की आज्ञा माँगी | माता ने बहुत समझाया, परन्तु उस विरक्तात्मा को अपने निश्चय से चलित नहीं कर सकी । अन्त में माता ने एक भव्य महोत्सव के साथ पुत्र का निष्क्रमण महोत्सव कर के प्रव्रजित करने का निश्चय किया ।
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+ कई विचारक इसे श्रीकृष्ण का अन्याय एवं पुत्री पर अत्याचार मामेंगे । परन्तु उनकी हितवृद्धि पर विचार किया जाय तो समझ में आ सकेगा । जिस प्रकार बालकों को शिक्षित बनाने में और रोग मुक्त करने के लिए कठोर बनना पड़ता है, उसी प्रकार सन्मार्ग पर लगाने के लिये किया हुआ उपाय भी औषधी के समान हितकारी होता है ।
+ यह विषय त्रि. श. पु. चरित्र में दिखाई नहीं दिया। यहां ज्ञाताधमंकथांग सूत्र से लिया जा रहा है।
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