Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्रीकृष्ण की वृद्ध पर अनुकम्पा
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महाराजा गजमुकुमालजी ने कहा ।
श्रीकृष्ण और माता-पितादि समझ गये कि गजसुकुमाल सच्चा विरागी है । इसे कोई भी प्रलोभन नहीं रोक सकता । उन्होंने दीक्षा महोत्सव किया और गजसुकुमालजी ने भ० नेमिनाथजी से निग्रंथ - प्रव्रज्या स्वीकार कर ली ।
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प्रव्रज्या स्वीकार करने के बाद गजसुकुमाल मुनिजी ने भगवान् से प्रार्थना की 'भगवन् ! यदि आप आज्ञा प्रदान करें, तो मैं महाकाल श्मशान में जा कर एक रात्रि की भिक्षु प्रतिमा धारण कर के विचरना चाहता हूँ ।"
भगवान् ने अनुमति प्रदान कर दी। मुनिजी महाकाल श्मशान में गये और विधिपूर्वक भिक्षु प्रतिमा धारण कर के खड़े रह कर कायुत्सर्गपूर्वक ध्यान में लीन हो गए ।
सोमिल ब्राह्मण यज्ञ के लिए समिधा और दर्भ-पत्र पुष्पादि लेने के लिए वन में गया था । वह समिधादि ले कर लोटा और महाकाल श्मशान के निकट हो कर निकला । उसकी दृष्टि ध्यानारूढ़ गजसुकुमाल मुनि पर पड़ी। उसका क्रोध भड़का । पूर्वबद्ध वैर जाग्रत हुआ । उसका मन हिंसक हो गया । उसने सोचा--' इस दुष्ट ने मेरी निर्दोष पुत्री का त्याग कर दिया और यहाँ महात्मापन का ढोंग कर रहा है। इसे ऐसा दंड दूं कि सारा ढोंग समाप्त हो जाय।' संध्या का समय था । मनुष्यों का आवागमन रुक गया था । उसने तलैया के किनारे की गीली मिट्टी ली और ध्यानस्थ अनगार के मस्तक पर उस मिट्टी से पाल बाँध दी । फिर एक फूटा हुआ ठीबड़ा उठाया और शव दहन के जलते हुए अंगारों को भर कर मुनिराज के मस्तक पर डाल दिया। इसके बाद वह वहाँ से भाग गया ।
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सिर पर अंगारे पड़ते ही मस्तक जलने लगा और घोर वेदना होने लगी । एक ओर असहनीय घोरतम वेदना शरीर में बढ़ रही थी, तो दूसरी ओर आत्म-स्थिरता एवं एकाग्रता बढ़ रही थी । वह आग तो शरीर को ही जला रही थी, किंतु आभ्यन्तर ध्यानाग्नि से कर्मरूपी कचरा भी जल कर भस्म हो रहा था । महात्मा क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हुए । घाती - कर्मों को नष्ट कर के केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त किया और योगों का निरोध कर सिद्धगति को प्राप्त हो गए । सादि-अनन्त सुखों में लीन हो गए । गजसुकुमाल अनगार सिद्ध परमात्मा बन गए ।
श्रीकृष्ण की वृद्ध पर अनुकम्पा
गजसुकुमाल मुनिराज के मोक्ष प्राप्त होते ही समीप में रहने वाले व्यन्तर देवों ने
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