Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 635
________________ ६२२ ककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककर तीर्थङ्कर चरित्र सुन्दरी कुमारी सोमा को प्राप्त किया है। हम तुम्हें उत्कृष्ट भोग भोगते हुए देखना चाहते हैं । तुम सोचो कि तुम्हारी इस बात से मातेश्वरी की क्या दशा हो गई है । इनकी और हम सभी की आकांक्षा को नष्ट मत करो । धर्म-साधना का सुयोग बाद में भी मिल सकेगा । बस, हम सभी का अनुरोध मान लो और दीक्षा की बात छोड़ दो। अब हम तुम्हारे लग्न की व्यवस्था करते हैं ।" “बन्धुवर ! आत्मा ने पूर्व जन्मों में भोम भी खूब भोगे और रोग-शोक तथा दुःख भी खूब भोगे। मोग में रोग, शोक, संताप एवं दुःख के बीज रहे हैं । मैने भगवान् से सम्यग्ज्ञान पा लिया है। अब में इस जाल में नहीं पडूंसा । मुझे असंयमी-जीवन की एक घड़ी भी पापयुक्त लगती है। अब मुझे हित-सुख एवं मुक्ति मार्ग पर चलने से मत रोकिये और शीघ्र ही अनुमति दीजिये।" __ श्रीकृष्ण और माता-पिता की संसार-साधक सभी युक्तियाँ व्यर्थ हुई, तब अन्तिम उपाय के रूप में प्रलोभन उपस्थित किया; "वत्स ! जब तुम हमारी सभी बातें अस्वीकार करते हो, तो एक अन्तिम इच्छा तो पूर्ण कर दो। हम चाहते हैं कि तुम एक दिन के लिए भी राज्याधिकार ग्रहण कर लो। हम तुम्हारी राज्यश्री देखना चाहते हैं।" . कुमार ने सोचा-“ इनको इस माम को अस्वीकार नहीं करना चाहिए । राज्याधिकार प्राप्त होते ही मेरी आज्ञा होगा-अभिनिष्क्रमण की व्यवस्था करने की। इन सभी को राजाज्ञा का पालन तो करना ही होगा"--यह सोच कर वे चुप रह गए। उन्होंने स्वीकृति भी नहीं दी और निषेध भी नहीं किया xA श्रीकृष्ण के आदेश से राज्याभिषेक महोत्सव हुआ और गजसुकुमालजी महाराजाधिराज हो कर राजसिंहासन पर बारूढ़ हुए । श्रीकृष्ण ने राज्याधिपति कुमार के सम्मुख खड़े रह कर पूछा; "राजन् ! आज्ञा दीजिये कि हम आपका किस प्रकार हित करें। हमें क्या करना चाहिए ?" "देवानुप्रिय ! राज्य के कोषालय से तीन लाख स्वर्ण-मुद्राएँ निकालो । उनमें से दो लाख के रजोहरण तथा पात्र मंगवायो ओर नापित को बुलवाओ। मैं उससे अपने बाल कटवाऊँगा और एक लाख पारितोषिक दूंगा । आप मेरे निरुपण की तैयारी कीजिये"-- xसष्ट स्वीकृति इसलिए नहीं दी कि-राज्याधिकार ऐसे भव्यात्माओं के लिए उपादेय नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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