Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 620
________________ - पद्मनाभ द्वारा द्रौपदी का हरण သော o *FFFFFFF फल है ?" इस प्रकार द्रौपदी भग्न हृदय से चिन्ता मग्न हो रही थी। इतने में पद्मनाभ सजध एवं अलंकृत हो कर अन्तःपुर के साथ उसके सामने खड़ा हुआ और नम्र वचनों से कहने लगा; ६०७ Feese Fe " 'सुभगे ! तुम चिन्ता मत करो। मैंने ही तुम्हें तुम्हारे भवन से, एक देव द्वारा हरण करवा कर यहाँ मंगवाया है। तुम प्रसन्न होओ और मेरे साथ उत्तम भोग भोगती हुई जीवन सफल करो ' Jain Education International "[ द्रौपदी नीचे देखती हुई मौनपूर्वक विचार कर रही थी कि पद्मनाभ फिर बोला ; - 'मृगाक्षि ! यह धातकीखंड की अमरकंका राजधानी का राजभवन और उपवन है । में पद्मनाभ यहाँ का शक्ति सम्पन्न अधिपति हूँ । भरतखण्ड यहाँ से लाखों योजन दूर है । विशाल लवण समुद्र और बड़े-बड़े पर्वत इसके बीच में रहे हुए हैं । भरत क्षेत्र का कोई भी मनुष्य यहाँ नहीं आ सकता । इसलिए तुम दूसरी आशा छोड़ कर मेरी बात मान लो और मेरी बन जाओ । में तुम्हें महारानी पद दे कर सम्मानित करूँगा और सभी प्रकार से सुखी रखूंगा ।" द्रौपदी ने सोचा--' अब चतुराई से अपना बचाव करना चाहिए।' वह बोली ; " देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के स्वामी श्रीकृष्ण वासुदेव, मेरे स्वामी के भ्राता हैं । यदि छह महीने तक वे मुझे लेने के लिए नहीं आवें, तो फिर में आपकी आज्ञा यावत् निर्देशाधीन रह सकूंगी। अभी आप मुझे पृथक् ही रहने दीजिये ।" पद्मनाभ ने द्रौपदी की बात स्वीकार की । उसे विश्वास था कि द्रौपदी की आशा व्यर्थ जायगी । भरत-क्षेत्र से यहाँ कोई भी मनुष्य नहीं आ सकता । उसने धैर्य धारण किया और द्रोपदी को अपनी पुत्रियों के कक्ष में पहुँचा दिया । उसी दिन से द्रौपदी, निरन्तर बेले-बेले तप और आयंबिल तपपूर्वक पारणा कर के अपनी आत्मा को प्रभावित करने लगी । उधर युधिष्ठिरजी जाग्रत हुए और द्रौपदी को नहीं देख कर इधर-उधर खोजने लगे । जब कहीं भी नहीं मिली, तो चितित हुए । उन्हें लगा कि किसी देव-दानव ने उसका हरण किया होगा । वे अपने पिता पाण्डु नरेश के पास आये और द्रोपदी के लुप्त होने की बात कही । पाण्डु नरेश ने अपने सेवकों को नगर, वन, पर्वतादि में खोजने को दौडाये / त्रि. पु. चरित्र में एक महीने की अवधि और मासखमण तप का उल्लेख है । For Private & Personal Use Only ww www.jainelibrary.org

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