Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 607
________________ तीर्थङ्कर चरित्र सक्त एवं निर्मोही हैं। उन योगी जैसे विरक्त में यदि भोग-रुचि होती, तो लग्न किये बिना ही क्यों लौट जाते ? तुम्हारे जैसी अलौकिक सुन्दरी का त्याग तो कोई दुर्भागी ही कर सकता है । अब तुम्हें किसी प्रकार का खेद या चिन्ता नहीं करनी चाहिये । मैं तुम्हारे साथ लग्न करने को तत्पर हूँ। मैं स्वयं तुमसे विवाह करने की उत्कट इच्छा के साथ प्रार्थना कर रहा हूँ। अब विलम्ब मत करो। प्राप्त यौवन को व्यर्थ नष्ट मत करो ।” ५९४ pass apps est रथनेमि की बात सुन कर राजमती स्तंभित रह गई । उसके सम्पर्क साधने और मूल्यवान् भेंटें देने का आशय उपे अब ज्ञात हुआ । उसने शान्तिपूर्वक रथनेमि को समझाया परन्तु वह तो कामासक्त था। समझाने का उस पर कोई प्रभाव नहीं हुआ । उसने सोचा'स्त्री लज्जाशील होती है। पुरुष के ऐसे प्रस्ताव को सहसा स्वीकार नहीं कर लेती अभी उसके हृदय पर असफलता का आघात भी लगा हुआ है । उसे सोचने का समय भी देना चाहिए ।' इस प्रकार विचार कर और दूसरे दिन आने का कह कर वह चला गया । दूसरे दिन रथनेमि पुनः राजमती के पास आया। राजमती ने उसका कामोन्माद उतार कर विरक्ति उत्पन्न करने के लिए एक प्रभावोत्पादक उपाय सोचा और उसके वहाँ पहुँचने के पूर्व ही उसने भरपेट - आकण्ठ - दूध पिया और जब रथनेमि आया, तो उसने मदनफल खा लिया। इसके बाद उसने रथनेमि से कहा - ' कृपया वह स्वर्ण - थाल ला दीजिये ।' वह प्रसन्नतापूर्वक उठा । उसने इसे राजमती का अनुग्रह माना । उसने सोचा'राजमती मेरे साथ भोजन करना चाहती है ।' थाल ला कर राजमती के सामने रख दिया । उस थाल में राजमती ने वमन करके पिया हुआ दूध निकाल दिया और रथनेमि से कहा--' लो, इस दूध को पी लो ।' रथनेमि घबराया । वह समझ नहीं सका कि राजमती क्या कह रही है । उसने पूछा--" क्या कहा ? क्या में इस दूध को पी लूँ ?" राजमती ने 'हाँ' कहा, तो वह तमक 'यह कौन-सी शिष्टता है ? क्या मैं कुत्ता हूँ, जो तुम्हारे वमन किये हुए दूध को कर बोला ; "" श्री लूं ?” ककककककककककक "क्यों, पूछते क्यों हो ? क्या यह पीने योग्य नहीं है ? क्या तुम समझते हो कि वमन किया हुआ मिष्टान्न भी अभक्ष्य हो जाता है" -- राजमती ने पूछा । Jain Education International - "तुम कैसी बात करती हो" - रथनेमि बोला- - " आबाल-वृद्ध सभी जानते है कि मन की हुई वस्तु मनुष्यमात्र के लिए अभक्ष्य होती है । एक मूर्ख भी ऐसा नहीं कर सकता ।" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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