Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 603
________________ ५६० तीर्थकर चरित्र နီနီနီဂန်းနန်းနီနီနန် लेने से मोह का आवेग हट जायगा और शान्ति हो जायगी।" "प्राणी अपने किये हुए कर्मों का फल ही भोगता है और दुःख-दावानल में जलता रहता है । प्रिय-संयोग का सुख कितने दिन रहता है ? मृत्यु तो वियोग कर ही देती है । इसके सिवाय रोग, शोक, अनिष्ट-संयोग, जन्म, जरा, मरण आदि दुःख तो लगा ही रहता है । इन दुःखों से कौन किसे बचा सकता है ? उदय में आये हुए कर्मों को तो जीव को स्वयं भोगना पड़ता है । माता-पिता, भाई और अन्य सम्बन्धी, उस दुःख से न ता बचा सकते हैं और न भागीदार बन सकते हैं।" ___"पिताजी और मातेश्वरी को संतोष धारण करना चाहिए । मेरे अनुज रथनेमि आदि भी हैं ही। यदि मैं लग्न नहीं करूँ, तो यह मेरी रुचि की बात है। मेरे अन्य बन्धुओं से वे अपनी इच्छा पूरी कर सकते हैं । मैं तो संसार के दुःखों से खिन्न हो गया हूँ और मुझ में भौतिक सुख की रुचि नहीं है, इसलिय में तो दुःख के हेतुभूत पापकर्मों को नष्ट करने में ही प्रवृत्त रहना चाहता हूँ। अब आप मुझ-से लग्न करने का आग्रह नहीं करें।" कुमार की बात सुन कर श्रीकृष्ण आदि सभी अवाक रह गए। श्री समद्रविजयजी बोले--"पुत्र ! तुम गर्भ से लगा कर अब तक सुखशील एवं सुकोमल रहे हो, भरपूर ऐश्वर्य में पले हो । तुम्हारा शरीर सुखोपभोग के योग्य है । तुम ग्रीष्म की भीषण गर्मी, शीत की घोर ठंड, वर्षा का झंझावात, क्षुधा-पिपासा और अनेक प्रकार के कष्ट कसे सहन कर सकोगें? संयम-साधना बड़ी कठोर होती है-वत्स !" “पिताश्री ! इस जीव ने नरक के घोर दुःख सहन किये हैं । उन भीषणतम दुःखों के समक्ष संयम-साधना में आते हुए कष्ट तो नगण्य है और तपपूर्ण जीवन तो अनन्तसुखोंशाश्वत सुखों की खान खोल देता है । दूसरी ओर काम-भोग के वैषयिक सुख, घोर दुःखों का भण्डार है । अब आप ही सोचिये कि मनुष्य के लिए दोनों में से उपादेय क्या है ? यदि आपका पुत्र, शाश्वत-सुख का मार्ग अपनाता है, तो इससे आपको प्रसन्न ही होना चाहिए।" पुत्र के दढ़ विचार सुन कर माता-पिता मोहावेग से शोक-विव्हल हो कर अश्रपात करने लगे और कृष्ण-बलदेवादि स्वजन भी खिन्न वदन हो कर शोकमग्न हो गए । कुमार ने सारथि से कह कर हाथी बढ़ाया और निज भवन में आ कर अपने कक्ष में चले गए। बारात भी मार्ग में से ही लौट गई।। यथासमय लोकान्तिक देव अरिष्टनेमि के समक्ष उपस्थित हुए और प्रणाम कर के बोले;-"भगवन् ! अब धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन कर के भव्य जीवों का उद्धार करो।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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