Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अरिष्टनेमि को महादेवियों ने मनाया
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श्रीकृष्ण सभी राजमहिषियों और रानियों सहित बसन्तोत्सव में उपस्थित हुए। गान-वादन, नृत्य, गीत, पुष्पचयनादि तथा गुलाल अबीर आदि से मनोरञ्चन करने के साथ परस्पर रंग भरी पिचकारियाँ भी चलने लगी। रानियों के झुण्ड ने अरिष्टनेमि को घेर लिया और उन पर सभी ओर से पिचकारियों की मार पड़ने लगी वे भी हँसते हुए तदनुकूल बरतने लगे।
स्नानादि से निवृत्त हो कर भोजन किया । गान-तान होता रहा और रात्रिवास वहीं किया। श्रीकृष्ण के संकेत पर महारानी सत्यभामा ने कहा;--
“देवरजी ! पुरुष की शोभा अकेले रहने में नहीं है । संसार में जितने भी पुरुष हैं, सब अपनी साथिन बना कर रखते हैं। आपके वंश में भी आपके सिवाय सभी के स्त्री साथिन है ही। आपके भ्राता और अन्य राजकुमारों के साथ तो अनेक स्त्रियां हैं । आपके इन ज्येष्ठ-बन्धु के कितनी है ? १६०००, अरे नहीं ३२००० । जिन से एक खासी बस्ती बस सकती है और आपके एक भी नहीं ? इस प्रकार अकेले और उदासीन रहना आप जैसे युवक को शोभा नहीं देता।"
आपका शरीर और शक्ति देखते हुए तो एक ही क्या, सैकड़ों और हजारों वामांगनाएँ होनी चाहिये आपके साथ"--महादेवी लक्ष्मणा ने कहा ।
"भाभी साहिब ! मैं आप सब के खेल देख रहा हूँ । पराश्रित सुख तो विनष्ट हो जाता है । उधार लिया हुआ धन, ब्याज सहित लौटाना पड़ता है । पराश्रित सुख में दुःख का सद्भाव रहता ही है। अपनी आत्मा में रहा हुआ सुख ही सच्चा सुख है । इस सुख-सागर की हिलोरों में, इस बसंतोत्सव से भी अधिकाधिक और स्थायी सुख भरा हुआ है । आप भी यदि आत्मिक सुख का आस्वाद लें, तो आपको यह बसन्तोत्सव निरस लगने लगे"-कुमार अरिष्टनेमि बोले ।
"देवरजी ! आप तो महात्मा बन कर उपदेश देने लगे। यदि हमारी बहिन आपके उपदेश से आप जैसी निरस हो गई, तो आपसे हमारा और आपके भाई साहब का झगड़ा हो जायगा । इस बहिन को कितनी कठिनाई से लाये हैं--ये आर्यपुत्र । और आप उपदेश दे कर अपने जैसी बनाने लग गए । यह कोई न्याय है"-जाम्बवती बोली।
--" भोजाई साहिबा ! समय आने पर आप स्वयं भी इस भूल-भूलैया से निकल कर वास्तविकता की भूमिका पर आजाएँगी और भाई साहब भी आपको नहीं रोक सकेंगे"-कुमार ने कहा ।।
"देखो कुँवरजी ! व्यर्थ की बातें छोड़ो और सरलता से विवाह करना स्वीकार
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