Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थङ्कर चरित्र
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के शासन को कलंकित होते मैं नहीं देख सकता । छोड़ो इसे । अन्यथा तुम सभी की शवयात्रा इस कीचक के साथ ही निकलेगी।"
__ कीचक के भाई भीमसेन पर झपटे। निकट के एक वृक्ष को उखाड़ कर भीम, कीचक-बन्धुओं को मारने लगा। कुछ मरे और कुछ घायल हो कर भाग निकले । द्रौपदी मुक्त हो कर अन्तःपुर में पहुँच गई । भीम भोजनशाला में आ पहुँचा।
जब महारानी ने सुना कि भोजनशाला के अध्यक्ष वल्लव ने कीचक-बन्धुओं में से कई को मार डाला और शेष को घायल कर दिया, तब वह महाराज के पास पहुंची और भाइयों का वैर, वल्लव से तत्काल लेने का आग्रह करने लगी। राजा ने रानी को समझाया कि-'अपराध तुम्हारे भाइयों का ही है। उन्हें दण्ड देना मेरा कर्त्तव्य था। मैने तुम्हारे प्रेम के वशीभूत हो कर कर्त्तव्य का पालन नहीं किया, तभी इतना अनर्थ हुआ । वल्लव ने तो एक निर्दोष सती की हत्या के पाप को रोकने का कार्य किया है। उसका साहस प्रशंसनीय है। वह राज्य का रक्षक है। उसका सम्मान होना चाहिए । फिर भी तुम्हारे स्नेह के कारण मैं हस्तिनापुर से आये हुए मल्लराज से उसे लड़ा कर उसका दमन कराऊँगा । तुम चिन्ता मत करो।" ।
हस्तिनापुर से "वृषकर्पर" नाम का एक मल्ल अपनी विजय-यात्रा करता हुआ और मार्ग के नगरों के मल्लों को पराजित कर के राज्य से विजय-पत्र प्राप्त करता हुआ विराट नगर में आया था और वहां के मल्लों से लड़ कर विजय प्राप्त कर चुका था। महाराजा ने वल्लव (भीमसेन) से कुश्ती लड़ने का आदेश दिया । दोनों का मल्लयुद्ध हुआ और अन्त में वल्लव ने वृषकर्पर को मार कर विजयश्री प्राप्त की। वल्लव की विजय से विराट नरेश अत्यन्त प्रसन्न हुए और वल्लव को राज्य का महान् रक्षक मान कर आदर किया। राजा के समझाने से रानी भी संतुष्ट हुई । नगरजन भी कीचक-बन्धुओं के विनाश से प्रसन्न हुए । क्योंकि उनके अत्याचार से नागरिकजन भी दुःखी थे।
गो-वर्ग पर डाका और पाण्डव-प्राकदय
जब हस्तिनापुर का विश्वविजेता महान् मल्ल वृषकर्पर को भीमसेन ने पछाड़-मारा और यह बात दुर्योधन तक पहुँची, तो उसे निश्चय हो गया कि पाण्डव विराट नगर में ही हैं । पाण्डव-प्रकाश के अनेक उपायों में से एक यह भी था । वह जानता था कि मल्ल
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