Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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युधिष्ठिर का राज्याभिषेक
अर्जुन के लौट आने और उत्सवों का कार्यक्रम कुछ कम होते ही पाण्डु नरेश ने पतामह, धृतराष्ट्र और विदुर आदि के समक्ष, राज्यभार से निवृत्त होकर धर्मसाधना में शेष जीवन व्यतीत करने की अपनी भावना व्यक्त की । उन्होने कहा -
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'अब मैं वृद्ध हो गया हूँ। मेरा शरीर भी शिथिल हो चुका है । राज्यभार को वहन करने जितनी शक्ति मुझ में नहीं रहीं । इतना जीवन राज-भोग में बिताया । अब जीवन के किनारे आ कर मुझे इस भार से निवृत्त हो कर धर्मसाधना करनी है । मेरी इच्छा है कि राज्यभार युधिष्ठिर के कन्धों पर रख कर निवृत्त होजाऊँ और आत्मोन्नति का मार्ग अपनाऊँ ।"
सभी ने नरेश के विचारों का समर्थन किया और राज्य व्यापी उत्सवपूर्वक युधिष्ठिर का राज्याभिषेक किया । राज्याधिकार प्राप्त करने के बाद गुरुजनों की अनुमति से पहली ही सभा में युधिष्ठिर नरेश ने दुर्योधन को इन्द्रप्रस्थ का राज्य दे कर सम्मानित किया और उसके अन्य बन्धुओं को भी विभिन्न देशों का राज्य दे कर सन्तुष्ठ किया। अन्य राजाओं और सामन्तों को भी यथायोग्य सम्मानित किया गया। महाराजा युधिष्ठिर बड़ी कुशलता एवं न्याय-नीति पूर्वक राज करने लगे । प्रजाहित को वे प्राथमिकता देते थे । अर्जुन आदि बन्धुओं के पराक्रम से उनके राज्य में वृद्धि भी हुई ।। आसपास के राज्यों में वे सर्वोपरि माने जाने लगे। उनकी कीर्ति अन्य राज्यों में भी व्याप्त हो गई । वे सुखपूर्वक राज्य का सञ्चालन करने लगे ।
दुर्योधन की जलन
पाण्डवों का अभ्युदय, श्रीवृद्धि और यश-कीर्ति, दुर्योधन के हृदय में जलन उत्पन्न कर रही थी । वह ईर्षा की आग में जल रहा था। उसकी उद्विग्नता बढ़ रही थी और सुखशांति नष्ट हो चुकी थी । वह पाण्डवों के पतन का उपाय खोजने लगा । किंतु वैसा कोई उपाय उसे दिखाई नहीं दे रहा था । पाण्डवों के पराक्रम एवं शौर्य से वह परिचित था । उनमें चारित्रिक त्रुटि भी नहीं थी। पांचों बन्धुओं के विरुद्ध ऐसा एक भी छिद्र उसे नही मिल रहा था कि जिससे वह अपनी जलन को शान्त कर सके । वह हर समय इसी चिंता में रहने लगा ।
पाण्डवों की ओर से
दुर्योधन को किसी प्रकार का भय नहीं था। वे उसे अपना
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