Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र
वर-सा | कलाकारों की कला का उत्कृष्ट रूप भित्तिचित्रों से प्रत्यक्ष हो रहा था । महोत्सव उत्कृष्ट रूप से मनाया गया था । आगत नरेशों, सामन्तों और जनप्रतिनिधियों ने महाराजाधिराज का अभिनन्दन एवं अभिवन्दन किया और भेटें समर्पित की। महाराजा ने भी सभी का यथोचित आदर किया और सिरोपाव आदि दे कर विदा किया ।
జెట్ ట్ రెడ్డి
दुर्योधन भी साम्राज्य का अधिनस्थ राजा था और उसे भी महाराजाधिराज का यथोचित अभिवन्दन करना ही पड़ा। किंतु महाराजा और भीमसेन आदि ने उसके साथ अपने बन्धु जैसा ही व्यवहार किया। उसे राजभवन में अपने साथ ही रखा और आग्रह कर विशेष दिन रोका । दुर्योधन, पाण्डवों के बढ़े हुए प्रभाव एवं अपार सम्पदा को देख कर मन ही मन विशेष जलने लगा । वह अपने भाग्य को धिक्कारते हुए कहता- 'हा, में पहले क्यों नही जन्मा ? युधिष्ठिर बड़ा कैसे हो गया? पहले जन्मा, तो मरा क्यों नहीं ! यदि यह नहीं होता, तो यह सारा राज्य मेरा ही होता । आज युधिष्ठिर के स्थान पर में होता और मेरी ही जयजयकार होती । यद्यपि हृदय से वह पाण्डवों का शत्रु था, तथापि ऊपर से तो उसे भी स्नेहशील ही रहना था और वह इस व्यवहार का पालन करता भी था ।
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दुर्योधन की हास्यास्प्रद स्थिति
महोत्सव का वेग अब उतर चुका था । फिर भी उत्सव के मंगलगान का दौर चल रहा था। सभा जुड़ी हुई थी । रंगशाला के ऊपर के गवाक्षों में रानियाँ बैठी हुई थी । गायिका गा रही थी, नर्तकियाँ नाच रही थी और सभी दर्शक देख-सुन रहे थे। उस समय दुर्योधन आया । नीलमणियों से खचित आँगन, शान्त सरोवर का आभास दे रहा था । दुर्योधन ने उसे जलाशय समझा और घुटने से ऊपर धोती उठा कर चलने लगा । उसकी भ्रमित चेष्टा ने सब को हँसा दिया। इसके बाद विश्राम कक्ष के चौक में आने पर उसने देखा -- वह स्वच्छ रजत से बना हुआ आँगन है । और वह निःसंकोच चलने लगा, किंतु उसका पाँव भवन कुण्ड के पानी की पंक्ति पर पड़ा। उसकी धोती भींग गई और चारों ओर हँसाई हुई। दुर्योधन लज्जित तो हुआ ही, परन्तु क्रोध में आगबबूला भी हो गया । उसका मुख विकृत हो गया । वह कुण्ड को पार कर विश्राम कक्ष तक पहुँच कर उसका द्वार खोलने लगा, किंतु वहाँ भी ठगाया। कलाकार ने भींत पर द्वार का तादृश्य बाकार ऐसा बनाया था कि दर्शक को साक्षात् द्वार का ही भ्रम हो और वह प्रवेश करने लगे । दुर्योधन प्रवेश करने गया, तो भींत से अथड़ाया । उसके क्रोध का पार नहीं रहा ।
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