Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र कककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककक
बाद पासा फेंका गया और युधिष्ठिर हार गये । इसके बाद युधिष्ठिर ने अपने भीमसेन आदि बन्धुओं को, खुद को और अन्त में द्रौपदी को भी दांव पर लगा कर हार गया। खेल समाप्त हो गया । स्वयं को हार कर पाण्डव दुर्योधन के दास बन गए । अब दुर्योधन अधिनस्थ से अधिकारी बन गया था । पाण्डवों के दिग्विजय से प्राप्त किया हुआ साम्राज्य, दुर्योधन ने मात्र पासे के बल से अधिकार में कर लिया । दुर्योधन के मनोरथ सफल हुए। उसने अपने अधिकारियों को भेज कर युधिष्ठिर के राज्य पर अधिकार जमाया। इधर दुर्योधन के आदेश से पाण्डवों को अलंकार और मूल्यवान् वस्त्र उतरवा कर दासों के योग्य वस्त्र दिये गये।
दुर्योधन की दुष्टता
दुर्योधन ने अपने भाई दुःशासन को आज्ञा दी कि वह अन्तःपुर से द्रौपदी को पकड़ कर राज-सभा में लावे । दुःशासन ने अन्तःपुर में जा कर द्रौपदी को आदेश सुनाया। द्रौपदी शौचक्की २ मई। उसने कहा-“मैं अभी ऋतुस्नाता हूँ। सभा में नहीं आ सकती।" दुःशासन भी दुर्योधन-सा दुष्ट और पाण्डव-द्वेषी था और उसे अपने देष को सफल करने का अपूर्व अवसर प्राप्त हुआ था । वह क्यों चूकता ? उसने द्रौपदी को पकड़ा । वह चिल्लाता रही, परन्तु दुःशासन उसे घसीटता हुआ राजसभा में ले ही आया । द्रौपदी ने भीष्मपितामह और धृतराष्ट्रादि आप्तजनों से, दुःशासन के नीचतापूर्ण व्यवहार से अपनी कुल-मर्यादा की रक्षा करने की प्रार्थना की। वे सभी दुर्योधन और दुःशासन को धिक्कार रहे थे। किन्तु वे तो अपनी सफलता एवं सार्वभौमता के मद में चूर थे । उन्हें आप्तजनों की आज्ञा और मर्यादा की अपेक्षा भी नहीं रही थी। पाण्डव, दास स्थिति को प्राप्त हो अधोमुख बैठे थे ।
द्रौपदी को देख कर दुर्योधन बोला
"द्रौपदी ! अब तू पाण्डवों की नहीं, मेरी हुई । अब तक तुझे पांच भाइयों को रिझाना पड़ता था । उस झंझट से तु छूट गई ! अब तु केवल मेरो ही रहेगी । पाण्डवों ने हार कर तुझे दासी बना दिया, परन्तु में तेरा रानी का पद अक्षुण्ण रखूमा । तू जब मेरी हुई । आ, मेरे पास आ और मेरी गोदी में बैठ जा।"
. दुर्योधन के नीचतापूर्ण वचन सुन कर द्रौपदी क्रुद्ध हो गई और रखतलोचन हो बोली
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