Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थङ्कर चरित्र
हो जाती, तो भी वे प्रसन्न ही होते । कृष्ण का स्थान सभी के हृदय में बन चुका था। सभी गोप-गोपिकाएँ उनकी रक्षा में तत्पर रहती थी।
भ्रातृ-मिलन और कृष्ण का प्रभाव समुद्रविजयादि दशाह को कृष्ण द्वारा शकुनी और पूतना के वध तथा अर्जुन-वृक्ष उन्मूलन की घटना ज्ञात हो चुकी थी । वसुदेव चिंतित थे कि कृष्ण की गुप्तता नष्ट हो रही है । वह धीरे-धीरे प्रकट हो रहा है । कंस तक भी उसकी बातें पहुँचेगी और वह उपद्रव खड़ा करेगा । उसे मारने की चेष्टा करेगा। यद्यपि कृष्ण के पुण्य प्रबल हैं, उसे कोई मार नहीं सकता, तथापि उसकी रक्षा का सम्भाव्य प्रयत्न करना ही चा हए । उन्होंने अपने एक पुत्र को कृष्ण की रक्षा के लिए सदैव उसके साथ रखने का विचार किया। उन्होंने सोचा-'मुझे उसी पुत्र को भेजना चाहिए जो समर्थ भी हो और जिसे कंस नहीं जानता हो । उन्होंने राम (बलराम) को कृष्ण के पास रखने का निश्चय किया। उन्होंने एक विश्वस्त मनुष्य को शौर्यपुर भेज कर रोहिणी सहित बलराम को बुलाया और बलराम को परिस्थिति समझा कर नन्द को सौंप दिया। बलराम भी नन्द के यहाँ पुत्र के समान रहने लगे।
बलराम के गोकुल में आने का दुहरा लाभ हुआ । कृष्ण के रक्षण के साथ धनुर्वेदादि कलाओं का शिक्षण भी दिया जाने लगा । थोड़े ही दिनों में कृष्ण सभी कलाओं में पारंगत हो गए । कृष्ण के लिए बलराम कभी आचार्य-स्थानीय होते, कभी मित्रवत् व्यवहार करते और ज्येष्ठ-भ्राता तो थे ही । दोनों बन्धुओं में स्नेह-सम्बन्ध अपार हो गया। दोनों बन्धु गोकुल में यमुना नदी के तट पर और वन में गोप-मित्रों के साथ घूमते-खेलते और विचरते हुए रहने लगे । कृष्ण ज्यों-ज्यों बड़े होते गए, त्यों-त्यों उनके पराक्रम भी बढ़ते गए। वे चलते हुए मस्त साँड को पूंछ पकड़ कर रोक देते । बड़े-बड़े भयंकर पशु भी उन्हें विचलित नहीं कर सकते थे। साहस के कार्यों में वे अग्रभाग लेने लगे थे। भाई के साहस को बलरामजी मौनपूर्वक देखा करते । वे कृष्ण का विशिष्ठ बल जानते थे।
गोपांगनाओं के प्रिय कृष्ण कृष्ण वयवृद्धि के साथ गोपांगनाओं को विशेष प्रिय लगने लगे। उनके मन में काम-विकार उत्पन्न होने लगा। वे कृष्ण को घेर कर चारों ओर घूमती नाचती हुई गीत
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