Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उग्रसेनजी की मुक्ति + सत्यभामा से लग्न
कंस की मृत्यु और सैनिकों के पलायन के बाद सभा अपने आप भंग हो गई । भय एवं चिन्ता लिए लोग अपने-अपने घर लौट गए । समुद्रविजयजी की आज्ञा से अनाधृष्टिकुमार, बलराम और कृष्ण को अपने रथ में बिठा कर वसुदेवजी के आवास पर ले आये। वहाँ सभी यादव एकत्रित हुए। वसुदेवजी, बलराम को अपने अर्धासन पर और कृष्ण को गोदी में बिठा कर बार-बार चुम्बन करने लगे। उनका हृदय भर आया और आँखों में आंसू झलकने लगे। यह देख कर वसुदेवजी के ज्येष्ठ-बन्धु पूछने लगे-"क्यों, वसुदेव ! तुम्हारी छाती क्यों भर आई ? आँखों में पानी क्यों उतर आया ? क्या सम्बन्ध है कृष्ण से तुम्हारा ?" वसुदेवजी ने देवकी से लग्न, अतिमुक्तकुमार श्रमण की भविष्यवाणी और उस पर से कंस के किये हुए उपद्रव आदि सभी घटनाएं सुना दी । समुद्रविजयजी आदि को कृष्ण जैसा महाबली पुत्र पा कर अत्यन्त हर्ष हुआ। उन्होंने कृष्ण को उठा कर छाती से लगाया और बार-बार चुम्बन करने लगे। कृष्ण की रक्षा और शिक्षा देने के कारण बलरामजी की भी उन्होंने बहुत प्रशंसा की । यादवों ने वसुदेवजी से पूछा;--
__ "हे महाभुज ! तुम अकेले ही इस संसार पर विजय प्राप्त करने में समर्थ हो, फिर भी तुम्हारे छह पुत्रों को, जन्म के साथ ही दुष्ट कंस ने मार डाला । यह हृदय-दाहक कर-कर्म तुमने कैसे सहन कर लिया ?"
" बन्धुओं ! उस दुष्ट ने स्नेह का प्रदर्शन कर के मुझे वचन-बद्ध कर लिया था। मैं उसकी धूर्तता नहीं समझ सका और वचन दे दिया। वचन देने के बाद उससे पलटना मेरे लिए शक्य नहीं बना । मैं सत्य-प्रिय हूँ। मैंने सत्य-व्रत का सदैव पालन किया है। अपने वचन की रक्षा के लिए में विवश रहा । देवकी के आग्रह से उसके सातवें बालक इस कृष्ण को मैं गोकुल में रख आया और उसके बदले में यशोदा की पुत्री ला कर रख दी, जिसकी नासिका के एक अंश का दुष्ट कंस ने छेदन कर दिया है।"
इसके बाद समद्रविजयजी आदि यदुवंशियों की सम्मति से ग्रसेनजी (कंस के पिता, जिन्हें कंस ने बन्दी बना दिया था) को कारागृह से मुक्त कर के कंस के शव की अंतिम क्रिया सम्पन्न की । इस अंतिम क्रिया में कंस की माता और अन्य रानियें तो सम्मिलित हुई, किन्तु उसकी मुख्य रानी जीवयशा सम्मिलित नहीं हुई। उसने अपने मनोभाव व्यक्त करते हुए कहा;
" इन ग्वाल-बन्धुओं और दशार्दादि यादवों को समूल नष्ट करने के बाद ही मैं अपने पति का प्रेत-कर्म करूँगी। यदि मैं ऐसा नहीं कर सकी, तो जीवित ही अग्नि-प्रवेश कर के प्राण त्याग दूंगी।"
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