Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थङ्कर चरित्र stselesedsetsosiatsesesesesesedesesesetidesisesidesesesesesesesisesesesesesesesesesesesesesesexesebisesideseselesesesets वह चिल्लाई--" मुझे छोड़ दो। मैं तुम्हारा स्पर्श करना भी पाप समझती हूँ। हस्तिनापुर नरेश के सिवाय मेरे लिए सभी पुरुष, पिता और बन्धु के तुल्य हैं । तुम कौन हो ? छोड़ दो मुझे ।" उसने उस युवक के मुंह की ओर देखा । उसे लगा कि ये प्रिय पाण्डु नरेश होंगे । चित्रकार के किये हुए वर्णन और बताये हुए लक्षण इनमें मिलते हैं
और मेरा मन भी शान्त एवं प्रफुल्ल लगता है। फिर भी सन्देह होता है कि वे अचानक इतनी दूर से यहाँ कैसे आ सकते हैं ? वह तड़प कर पृथक् होने के लिए जोर लगाने लगी, तब युवक बोला-"प्राणवल्लभे ! मैं तेरे मोह में मुग्ध हो कर हस्तिनापुर से यहां आया हूँ। मैं स्वयं तुम्हारी प्रीति का प्यासा पाण्डु, तुम्हें पाने की आशा से यहां आ कर प्रतीक्षा में छुपा हुआ था । अब तुम प्रसन्न हो कर मुझ पर अनुग्रह करो।"
कुन्ती की प्रसन्नता का पार नहीं रहा । वह पाण्डु से लता की भाँति लिपट गई । इतने में उसकी सखी पुष्पादि ले कर वहाँ आई । उसने कुन्ती को एक पुरुष के बाहुपाश में आबद्ध देखा, तो विचार में पड़ गई । सखी को आती देख कर कुन्ती सम्भली और दोनों पृथक हो कर नीची दृष्टि किये बैठ गए। सखी ने युवक के चेहरे पर राजतेज देख कर समझ लिया कि राजकुमारी का मनोरथ सफल हुआ। कुन्ती ने उठ कर सखी को आलिंगन में भर लिया और उसकी अनुपस्थिति में बनी हुई घटना सुना दी। दोनों सखियों की प्रसन्नता का पार नहीं था।
"अब क्या किया जाय ?" कुन्ती के प्रश्न के उत्तर में सखी ने कहा-"गन्धर्वविवाह । अभी यही ठीक रहेगा।" सखी ने वहीं उन्हें सूर्य-साक्षी से वचनबद्ध कर हस्त. मिलाप कराया और लाये हुए पुष्पों की माला से एक-दूसरे का लग्न हो गया।
सखी ने पूछा--"आप यहाँ कैसे आये ?"
- 'भद्रे ! मैं तुम्हारी सखी का चित्र देख कर विमोहित हो गया । मुझे आशा थी कि पूज्य पितृव्य की माँग आपके महाराज स्वीकार कर लेंगे। किन्तु हमारा दूत हताश हो कर लौटा, तो मैं क्षुब्ध हो गया। मेरी शान्ति लुप्त हो गई। विक्षिप्त-सा इधरउधर भटकने लगा । कभी वाटिका में, कभी उद्यान में, कभी पर्वत पर और कभी सरिता के किनारे जा कर शान्ति की खोज करने लगा। एकबार मैं पर्वत की उपत्यका में घूम रहा था कि मेरी दृष्टि एक खेर के वृक्ष पर पड़ी, जिसके तने पर एक पुरुष बड़े-बड़े कीलों से बिंधा हुआ तड़प रहा था। उसे देख कर मुझे दया आई । मैने उसके शरीर से कीलें निकाल कर उसे भूमि पर लिटाया । वह मूच्छित हो गया था । मैने निकट के जलाशय से पानी ला कर छिड़का । उसकी मूर्छा दूर की और उनकी दुर्दशा का कारण पूछा । उसने कहा
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