Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र
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ने भी वैसा ही दिया, किंतु दुर्योधन भीम की मार से तिलमिला गया। उसके मन में शत्रुता उभरी और वह भीम को समाप्त कर देने के उद्देश्य से पुनः प्रहार करने को तत्पर हुआ । भीम तो शांत ही था, परंतु दुर्योधन की खेल में भी दुर्भावना एवं दुष्टता देख कर वह भी क्रोधाभिभूत हो कर भयंकर बन गया । उसने भी दुर्योधन को दण्ड देने के लिए गदा उठाई। यह देख कर राजा और भीष्मपितामह तथा आचार्य ने निकट आ कर उसे शांत किया। दोनों की परीक्षा समाप्त कर दी गई ।
इसके बाद अर्जुन की परीक्षा प्रारंभ हुई। उसने अपनी कला निपुणता का प्रदर्शन करना प्रारंभ किया। स्थिरलक्ष्य, चललक्ष्य, स्थूललक्ष्य आदि सूक्ष्मलक्ष कलाओं में प्रवीणता देख कर दर्शक - समूह चकित रह गया । सारी सभा हर्षविभोर हो गई । अर्जुन का एक भी लक्ष्य व्यर्थ नहीं गया, सभी अचूक रहे । उसकी चपलता चमत्कारिक थी । वह एक क्षण में सिकुड़ कर संकुचित हो जाता, तो दूसरे ही क्षण विस्तृत, क्षणभर में पृथ्वी पर चिपट कर बाण चलाता, तो दूसरे ही क्षण आकाश में उछल कर लक्ष्य वेधता । चलते, दौड़ते, कूदते हुए निशान को अचूक वेधना उसकी विशेषता थी । अग्न्यास्त्र, वरुणास्त्र आदि दिव्य अस्त्रों के प्रयोग में भी वह सर्वश्रेष्ठ रहा । अर्जुन की सर्वोपरि सफलता देख कर उसके विरोधियों और ईर्षा करने वालों के मन में खलबली मच गई । महारानी कुन्ती अपने पुत्रों के श्रेष्ठ गुणों से हर्ष-विभोर थी, तो गान्धारी अपने पुत्र दुर्योधन की निम्नता से उदास थी। अर्जुन की जय-जयकार, दुर्योधन सहन नहीं कर सका । उसका क्रोध मुंह, नेत्र और भृकुटी पर स्पष्ट रूप से अंकित हो गया। उसके बन्धुगण भी आवेशित हो गए । उसके मित्र, कर्ण को भी अर्जुन की सर्वोपरिता अखरी । कर्ण भी वीर योद्धा और कला - निपुण था । वह अपने आसन से उठा और सिंह के समान गर्जना करता हुआ सन्नद्ध होकर रंगभूमि में आया । इस समय पाँचों पाण्डव और द्रोणाचार्य एक ओर और सो कौरव, अश्वत्थामा तथा कर्ण दूसरे दल में थे । कर्ण की विकराल आकृति देख कर सभी सभाजन चिन्तित हो गए। कृपाचार्य, द्रोणाचार्य और सभा को सम्बोधित कर कर्ण कहने लगा-
"
'गुरुदेव, आप्तजन और सभासद ! संसार में एक अर्जुन ही सर्वोपरि नहीं है ! आपने उसकी कला - निपुणता देखी, अब मेरी भी देखिये ।
इस प्रकार गर्वोक्ति प्रकट कर के कर्ण ने अपना कौशल बताया। जितनी कलाएँ अर्जुन ने बतलाई थी, उतनी और वैसी ही और कोई विशिष्ट भी कर्ण ने प्रदर्शित की। कर्ण की अद्भुत क्षमता और श्रेष्ठता देख कर दुर्योधन की उदासीनता दूर हो गई। उसने
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