Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
कृष्ण के जाम्बवती आदि से लग्न
३९३
सत्यभामा को सान्त्वना देने के लिए कहा। किंतु सत्यभामा ने अपने को अपमानित माना। वह खेदित हो कर तत्काल वहां से लौटी और अपने भवन में चली आई । रुक्मिणी को कृष्ण ने बहुत-से दास-दासी और विपुल धन-सम्पत्ति प्रदान की और उसके साथ भोगनिमग्न रहने लगे।
कृष्ण के जाम्बवती आदि से लग्न ।
कालान्तर में इधर-उधर घूमते हुए नारदजी द्वारिका आये। कृष्ण ने उनका सत्कार किया और पूछा--" कहिये कोई अद्भुत वस्तु कहो देखने में आई ?" नारदजी ने कहा--" में एक अद्भुत वस्तु देख कर ही आ रहा हूँ। वताढय पर्वत के खेचरेन्द्र जाम्बवन्त की पुत्री जाम्बवती इस युग का स्त्री-रत्त है । ऐसी अनुपम सुन्दरी विश्व में अन्य कोई नहीं हो सकती । जाम्बवती जल-क्रीड़ा करने के लिए प्रतिदिन गंगा नदी पर आती है । में उसे तुम्हारे अनुरूप देख कर हो यहां आया हूँ।
कृष्ण के मन में चाह उत्पन्न कर नारदजी चल दिये । कृष्ण भी आवश्यक साधन ले कर गंगा तट पर पहुँचे । उन्होंने सखियों के साथ जल-क्रीड़ा करती हुई जाम्बवती को देखा । वास्तव में वह वैसी ही विश्व-सुन्दरी थी, जैसी नारदजी ने बताई थी। उन्होंने उसे उठाया और ले चले अपनी नगरी की ओर । सखियों और संरक्षकों में भयपूर्ण कोलाहल उत्पन्न हुआ। राजा जाम्बवंत और उसका पुत्र विश्वक्सेन तत्काल शस्त्र ले कर आये। अनाधिष्णि-जो कृष्ण के साथ आया था--बीच में ही रोक कर भिड़ गया और कुछ देर लड़ने के बाद उन्हें बाँध कर कृष्ण के पास ले आया। जाम्बवंत ने अपनी पुत्री कृष्ण को दी और स्वयं विरक्त हो कर प्रवजित हो गया । कृष्ण, जाम्बवती और उसके भाई को ले कर द्वारिका में आये । जाम्बवती को रुक्मिणी के भवन के पास ही एक भवन दिया और मभी प्रकार की सुख-सामग्री दे कर सुखपूर्वक रहने लगे। जाम्बवती के और रुक्मिणी के परस्पर स्नेह हो गया। वे दोनों सहेलियों के समान रहने लगी।
राजा श्लक्ष्णरोमा, कृष्ण की आज्ञा नहीं आनता था। उसकी पुत्री लक्ष्मणा भी अपूर्व सुन्दरी थी और वह सेनापति के संरक्षण में समुद्र पर जल-क्रीड़ा करने आई थी। कृष्ण, राम को साथ ले कर समुद्र पर गए और सेनापति को मार कर लक्ष्मणा को ले आए । जाम्बवती के समान लक्ष्मणा से भी गन्धर्व-लग्न किये और जाम्बवती के भवन के निकट उसे भी भव्य भवन दे कर सभी प्रकार की सुविधा कर दी।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org