Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भिखारी का संयोग और वियोग
टूटे कपड़े उतार दो, उसके बाल बनवा कर और स्नान करवा कर स्वच्छ बनाओ । फिर अच्छे वस्त्र एवं अलंकार पहिनाओ और भोजन करा कर मेरे पास लाओ ।"
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सेवक गए और उस भिखारी को भोजन कराने का लोभ बता कर घर ले आए। उसका ठिबड़ा और सिकोरा ले कर एक ओर डालने लगे, तो वह जोर से चिल्लाया और रोने लगा, जैसे उसे कोई लूट रहा हो । उसे आश्वस्त किया । इसके बाद उसका क्षौरकर्म कराया, उत्तम तेल की मालिश की और सुगन्धित द्रव्य से उबटन कर स्नान कराया । फिर उत्तम वस्त्र पहिना कर आभूषणों से अलंकृत किया । इसके बाद स्वादिष्ट भोजन कराया और मुखवास दे कर, सेठ सागरदत्त के पास लाये । सागरदत्त ने सुकुमालिका को सुसज्जित कर उस भिखारी को देते हुए कहा - " यह मेरी एकमात्र सुन्दर पुत्री है । में इसे तेरी पत्नी बनाता हूँ | तू इसके साथ यहां सुख से रह और इसे सुखी कर ।"
भिखारी सुकुमालिका के साथ रह गया । जब वह उसके साथ शय्या पर सोया, तो उसके अंग स्पर्श से ही वह जलने लगा । वह भी सुकुमालिका को सोती छोड़ कर उठा और सेठ के दिव्ये वस्त्रालंकार, वहीं डाल कर अपने फटे कपड़े और ठिकरा ले कर, ऐसे भागा जैसे वधिक के द्वारा होती हुई मृत्यु से बच कर भागा हो । सुकुमालिका फिर भग्न- मनोरथ हो कर चिन्ता-मग्न हो गई जब सागरदत्त को भिखारी के भाग जाने की बात मालूम हुई, तो वह स्तब्ध रह गया और पुत्री के पास आ कर कहने लगा ।
" पुत्री ! तू अपने पूर्वकृत पापकर्म के उदय का फल भोग रही है । अब तू पति + सुकुमालिका का शरीर उष्ण नहीं था । उसके माता-पिता, आदि भी उसका स्पर्श करते थे, तो उन्हें उष्ण नहीं लगता था । किन्तु पति के स्पर्श करते ही उष्ण हो जाता । यह उसके अशुभ कर्म का उदय था । लगता है कि उसमें पति का संयोग पा कर, बेदमोहनीय का तीव्र उदय होता था और उस उदय के साथ ही उसके शरीर में तीव्र उष्णता उत्पन्न हो जाती थी। जैसे तीव्र क्रोधोदय में शरीर धूजने लगता है, घबडाहट और पसीना हो जाता है । इसी प्रकार उसके पापोदय से उसका शरीर ऐमे ही पुद्गलों से बना कि जिसमें काम के साथ उष्णता उत्पन्न होती थी । इस कर्म का विचित्र विपाकोदय समझना चाहिए ।
कुछ विचारक इसे सुकुमालिका का 'पुनर्विवाह' बता कर श्रेष्ठिकुल में पुनर्विवाह को प्रथा उस समय प्रचलित होना सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। किन्तु यह प्रयत्न व्यर्थ है । क्योंकि सुकुमालिका का सागर के साथ हीं विधिवत् विवाह हुआ था, भिखारी के साथ नहीं । सागरदत्त ने पुत्री को सतुष्ठ करने के लिए भिखारी का संयोग मिलाया था । जिस प्रकार कामातुर स्त्री-पुरुष अवैध सम्बन्ध बनाते हैं । कहीं-कहीं तीसरा व्यक्ति भी सहायक बन जाता है। उसी प्रकार इस घटना में भी हुआ हैं । यहाँ पुत्री के मोह से प्रेरित हो कर पिता ने सम्बन्ध जुड़वाया । इसे 'विवाह' नहीं कह सकते ।
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