Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थङ्कर चरित्र
गांगेय बोला -- " जो व्यक्ति दुर्व्यसनी हो, क्रूर हो, जिसके हृदय में दया में नहीं हो, जो अपनी प्रतिज्ञा का पालन नहीं कर सकता हो और जिसके सुधरने की आशा नहीं हो, ऐसे से सम्बन्ध विच्छेद करना ही उचित है । आपने सम्बन्ध विच्छेद कर के अच्छा ही किया है । मुझे ऐसे अन्यायी, अधर्मी और दुर्व्यसनी राजा को पिता कहने और सत्कार करने में संकोच होता है ।"
पुत्र के वचन सुन कर गंगादेवी, पति के समीप गई और प्रणाम कर के कहने लगी ;"महाराज ! आपको अपने पुत्र पर क्रोध करना और निर्दय होना उचित नहीं है । पिता-पुत्र का युद्ध में कैसे देख सकती हूँ ? पशुओं के शिकार ने आपका हृदय इतना कठोर और पाषाण तुल्य बना दिया कि मनुष्य पर भी दया नहीं रही । अपने पुत्र को मारने के लिए आपका हृदय कैसे तत्पर हुआ--" प्राणेश ! यदि बालक से कोई अपराध हुआ भी तो वह क्षमा करने योग्य है और आप क्षमा प्रदान करने योग्य हैं।"
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अपने सामने अचानक गंगा महारानी -- वर्षो से बिछुड़ी हुई हृदयेश्वरी -- को देख कर शान्तनु स्तब्ध रह गया । वह रथ से नीचे उतरा और धनुष वाण एक ओर डाल कर हर्षयुक्त दौड़ता हुआ प्रिया के निकट आया । उसके हर्ष का पार नहीं था । वह रानी को हृदय से लगाना चाहता था, परन्तु सुभटों और कुमार की उपस्थिति से रुक गया । दोनों के हृदय एवं नेत्र प्रफुल्लित हो रहे थे और हर्षाश्रु बह रहे थे वर्षों के वियोग के बाद मिलन की आनन्दानुभूति अवर्णनीय होती । कुछ समय बाद राजा सम्भला और अपने कुलदीपक वीरशिरोमणि पुत्र के प्रति उमड़े हुए वात्सल्य भाव से प्रेरित हो कर दूर खड़े हुए गांगेय की ओर बढ़ा। गांगेय ने पिता का अभिप्राय समझा । वह धनुषबाण छोड़ कर आगे बढ़ा और पिता के चरणों में झुका । पिता ने उसे भुजाओं में भर कर छाती से चिपका लिया । शान्तनु राजा के हर्ष का पार नहीं था । उसे बिछुड़ी हुई प्रिया और वीरशिरोमणि, प्रतिमा का धनी पुत्र प्राप्त हो गया था। राजा ने हर्षावेश में रानी में रहा;" प्राणवल्लभे ! तुम्हें और इस देवोपम पुत्र का पा कर, में आज अपन की परम सौभाग्य सम्पन्न समझता हूँ । मेरे हृदय में अपने दुष्कृत्य के प्रति पश्चात्ताप है । में आज सच्चे हृदय से प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब आजीवन आखेट नहीं करूँगा । अब चलो और विलुप्त हुई अन्तःपुर की शोभा को फिर से जगमा दो, " - शान्तनु ने आग्रहपूर्वक कहा -
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• आर्यपुत्र ! में अब संसार से विरक्त हो चुकी हूँ। अब में प्रव्रजित हो कर मनुष्यभव को सफल करना चाहती हूँ । इस पुत्र के कारण ही मैं रुकी हुई थी । अब पुत्र को आप ले जाइए और मुझे निग्रंथ-प्रव्रज्या धारण करने की आज्ञा प्रदान कीजिए ।"
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