Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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गांगेय की भीष्म-प्रतिज्ञा
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आप कल्पना ही क्यों करते हैं ?" मै आपके सामने प्रतिज्ञा करता हूँ कि यदि मेरे छोटे भाई का जन्म हुआ, तो राज्य का अधिपति वही होगा, और मैं उसकी रक्षा में तत्पर रहूँगा । कहिये, अब तो आपको विश्वास हुआ ?"
राजकुमार की प्रतिज्ञा सुन कर नाविक स्तम्भित रह गया। वह गांगेय के गुणों की प्रशंसा सून चका था। वह राजकुमार को नीतिमान और धर्मात्मा समझता था। परंत अपना राज्याधिकार छोड़ने जितनी तत्परता की उसे आशा नहीं थी। इतना सब होने पर भी नाविक पूर्ण रूप से संतुष्ट नहीं हुआ था। उसकी पैनी दृष्टि में एक आशंका फिर भी शेष रह गई थी। उसने कहा
-"गांगेयदेव ! आपकी प्रतिज्ञा पर मुझे विश्वास है । मुझे यह तो संतोष हो गया कि आपकी ओर से मेरी पुत्री और उसकी सन्तान को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होगा। परंतु आपकी सन्तान होगी, वह इस बात को कैसे सहन कर सकेगी कि अपने अधिकार के राज्य का दूसरा अनधिकारी उपभोग करे । उनकी ओर से तो भय शेष रह ही जाता है"- केवट अधिकाधिक पाने की आशा से बोला।
-"नाविक राज ! आपकी इस आशंका को समाप्त करके, आपको निःशंक बनाने के लिए, धर्म की साक्षी से प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं आजीवन ब्रह्मचारी रहूँगा। स्वर्ग के देवगण मेरे साक्षी रहें। अब आपकी समस्त आशंकाएं निर्मूल हो गई । अब विलम्ब मत करिये और इस रथ में अपनी पुत्री को बिठा कर मेरे साथ भेजिए।"
नाविक अवाक रह गया। उसके मुंह से 'धन्य-धन्य' की ध्वनि निकल गई। आकाश में रहे हुए देवों ने कुमार पर पुष्प-वर्षा की और जय-जयकार किया तथा कुमार की इस प्रतिज्ञा को " भीष्म प्रतिज्ञा" बतलाया। नाविक ने गांगेय से कहा;--"वीरवर! सत्यवती मेरी ओरस पुत्री नहीं है । यह भी राजकुमारी है ।" उसने उसका सारा वृत्तांत सुनाया और सत्यवती को बुला कर प्रेमालिंगन करते हुए कहा
"पुत्री ! इस भव्यात्मा राजकुमार के साथ राज-भवन में जाओ और राजरानी बनो ! सुखी रहो । मुझसे तुम्हारा वियोग सहन करना कठिन होगा। किन्तु प्रसन्नता इस बात की है कि तू सुखी रहेगी। महाराजाधिराज का मैं श्वशुर और वे मेरे जामाता होंगे। वीर-शिरोमणि राजकुमार गांगेय मेरे दोहित्र होंगे। जा पुत्री ! सुखी रह और अपने इस गरीब पिता को भी कभी-कभी याद करती रहना । सत्यवती का हृदय भर आया। उसने पिता को प्रणाम किया । गांगेयकुमार ने नाविकराज को और सत्यवती को प्रणाम कर के कहा--"माता ! इस रथ में बैठो।" सत्यवती रथ में बैठी। राज-भवन में पहुंचने पर
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