Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ. अरिष्टनेमि का जन्म
I
और रास गाने लगी । कभी गोपांगनाएँ गाती और कृष्ण नृत्य करते, कभी कृष्ण बंसी बजाते और गोपियें नृत्य करती । वे उनके आस-पास घूमने मँडराने लगी । कृष्ण-स्नेह में वे इतनी रत रहने लगी कि उनके गृह कार्य भी बिगड़ने लगे । कोई गो-दोहन करते समय दूध की धारा बरतन के बाहर भूमि पर गिराने लगती, किसी का भोजन बिगड़ जाता, कोई दो-तीन बार नमक मिर्च घोल देती, तो कोई किसी में अकारण ही पानी डाल देती । किसी कार गृह-कार्य पूरा कर के वे कृष्ण के समीप आती और उनके आगे-पीछे मँडराने लगती, उन्हें अपलक देखने लगती । कृष्ण के लिए वे मयूर - पिच्छ के अलंकार बनाती, फूलों की मालाएँ गूँथती और पहिनाती । कृष्ण-प्रेम वे लोक-लाज भी भूल जाती । कृष्ण भी कभी उन्हें मधुर आलाप से प्रसन्न करते, तो कभी रुष्ट हो कर तड़पाते । गोपियों को प्रसन्न एवं आकर्षित करने के लिए वे ऊँची टेकरी पर बैठ कर बंसी का नाद पूरते । कभी उनके माँगने पर सरोवर के अगाध जल को तैर कर कमल-पुष्प ला देते । बलरामजी
उनकी सभी चेष्टाएँ देख कर हँसते रहते। कभी शिकायत करती हुई कहती -- " आप के भाई बड़े मुझ से रूठ गए हैं। आप उन्हें समझाइए ।" इस हो गए ।
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कोई गोपी, बलरामजी से कृष्ण की निष्ठुर हैं, मेरी ओर देखते ही नहीं, प्रकार सुखपूर्वक ग्यारह वर्ष व्यतीत
भगवान् अरिष्टनेमि का जन्म
सूर्यपुर में समुद्रविजयजी की रानी शिवादेवी ने रात्रि के अंतिम पहर में चौदह महास्वप्न देखे | वह रात्रि कार्तिक कृष्णा द्वादशी थी । चन्द्र चित्रा नक्षत्र से सम्बन्धित था । उस समय अपराजित नामक अनुत्तर विमान शंख देव का जीव, शिवादेवी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ । उस समय नरक की अन्धकारपूर्ण भूमि में भी उद्योत हुआ और दुःख ही दुःख में सतत पीड़ित रहने वाले नारकों को भी थोड़ी देर के लिए सुख का अनुभव हुआ -- शांति मिली । शिवादेवी जाग्रत हो कर राजा समुद्रविजयजी के समीप आई। राजा ने रानी का स्वागत कर आसन दिया। रानी ने स्वप्न-दर्शन का वर्णन किया । स्वप्नशास्त्रियों को बुलाया । वे स्वप्न फल का विचार करने लगे। इतने में ही एक चारणमुनि वहाँ पधारे । राजा ने मुनिराज को वन्दन - नमस्कार किया । स्वप्न- पाठक ने स्वप्नफल सुनाया । चारणमुनिजी ने भी कहा--" भावी तीर्थंकर भगवान का गर्भावतरण हुआ है ।" राजा और रानी को स्वप्न फल से अपूर्व हर्ष एवं संतोष हुआ । उन्हें
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