Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र
सीता के प्रत्यर्पण का परामर्श रावण को नहीं भाया । वह एकान्त में चिन्तासागर में डूबने-उतरने लगा । अन्त में उसने 'बहुरूपा' नामक विद्या साध कर फिर युद्ध करने का निश्चय किया । वह पूरी तय्यारी करके विद्या की साधना में लग गया । यह बात भेदियों द्वारा सुग्रीव को मालूम हुई । सुग्रीव ने रामभद्रजी से निवेदन किया कि " रावण विद्या साधना में लगा है । इसके पूर्व ही आप बहुरूपा विद्या साध लेंगे, तो अच्छा रहेगा ।" सुग्रीव की बात सुन कर रामभद्रजी ने कहा--" रावण ध्यान करने में प्रवीण है, उसे छलना उचित नहीं ।" रामभद्रजी की बात सुन कर कुछ साथी निराश हुए। अंगद आदि वीर, गुप्त रूप से चल कर रावण के साधनास्थल पर पहुँचे और उसे विविध प्रकार के उपसर्ग करने लगे । किन्तु रावण विचलित नहीं हुआ । उसकी अडिगता देख कर अंगद ने कहा; --
"हे रावण ! राम से भयभीत हो कर तेने यह पाखण्ड खड़ा किया है । इससे क्या होगा ? तेने तो महासती सीता का चोरा-छुपे हरण किया, किंतु देख में तेरे सामने ही तेरी महारानी मन्दोदरी का हरण करता हूँ । यदि साहस हो, तो रोक मुझे ।"
इस प्रकार कह कर उसने विद्या से मन्दोदरी का रूप बनाया और चोटी पकड़ कर घसीटने लगा | मन्दोदरी चिल्लाने लगी -- " नाथ ! मुझे बचाओ । यह अंगद पापी मुझे अंतःपुर से पकड़ लाया और घसीट कर ले जा रहा है । छुड़ाओ, स्वामी ! इस पापी से मुझे।" किंतु रावण अडिग ही रहा । अंगद को निष्फल लौटना पड़ा। रावण की धीरता और एकाग्रता से विद्यादेवी प्रकट हुई। उसने रावण से कहा--" में उपस्थित हूँ । बोल, क्या चाहता है ?" रावण ने कहा--" जिस समय में तेरा स्मरण करूँ, उस समय तु उपस्थित हो कर मेरा कार्य करना ।” विद्या अन्तर्धान हो गई ।
काम के स्थान पर अहंकार आया
साधनागृह से चल कर रावण स्वस्थान आया और भोजनादि से निवृत्त हो कर देवरमण उद्यान में सोता के पास आ कर कहने लगा; --
44 " सुन्दरी ! मैंने बहुत लम्बे समय से तेरे हृदय परिवर्तन की प्रतीक्षा की। अब अन्तिम बार पुनः कहता हूँ कि तू मान जा । अन्यथा तेरे पति और देवर को मार कर तुझे बलपूर्वक अपनी बना लूंगा और अपना मनोरथ पूर्ण करूँगा । बोल, तु अब भी मानती है, या नहीं ?"
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