Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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दमयंती के पुनर्विवाह का आयोजन
दमयंती पर पहले ही लुब्ध था। उस समय वह उसे नहीं मिल सकी, तो अब वह उसे प्राप्त करने अवश्य ही आएगा। और यदि कूबड़ा स्वयं नल होगा, तो दमयंती का पुनविवाह सुन कर, विचलित हो कर साथ ही आएगा। फिर वह नहीं रुक सकेगा.। दूसरी बात यह कि नल ही एक ऐसा व्यक्ति है जो अश्व की विशेषता तथा हृदय जानता है । थोड़े समय में लम्बा मार्ग पार करने का सामर्थ्य नल में ही है । इससे भी उसकी पहिचान हो सकेगी। राजा ने पुत्री को अपनी योजना बताई और एक विश्वस्त दूत के साथ राजा दधिपर्ण को, दमयंती के स्वयंवर में सम्मिलित होने का आमन्त्रण दिया । आमन्त्रण में स्वयवर का समय इतना निकट बताया कि राजा, तत्काल चल दे और रथ-चालक अत्यंत निपुण हो तथा घोड़े शीघ्रगामी ही, तो भी पहुँचना कठिन था। आमन्त्रण पा कर पहले तो दधिपण प्रसन्न हुआ। उसने सोचा-यह देव की अनुकूलता है कि निष्फल हुआ मनोरथ, अकल्पित रूप से अनायास ही सफल एवं सिद्ध हो रहा है। उसके हृदय में हर्ष का आवेग उत्पन्न हुआ। किंतु तत्काल ही वह निराशा के झूले में झूलने लगा । 'पंचमी तो कल है और स्थान सैकड़ों योजन दूर है । जिस मार्ग को सन्देशवाहक कई दिनों चल कर पहुँच सका, उसे में डेढ़ दिन में कैसे पूरा कर सकूँगा।' राजा, चिन्ता-सागर में निमग्न हो गया और उच्चाटन के कारण करवट बदलने लगा।
विदर्भ के दूत से दमयंती के पुनर्लग्न की बात सुन कर नल के हृदय पर वज्रपात के समान आघात लगा । उसका हृदय कुंठित हो गया। थोड़ी देर में हृदय को स्थिर कर के उसने विदर्भ जाने का निश्चय किया और नरेश के पास आया । नरेश चिन्ता-सागर में गोते लगा रहे थे । नल ने चिन्ता का कारण पूछा । दधिपर्ण ने बताया । नल ने कहा---.." आप निश्चित रहें और मुझे दो अच्छे घोड़े और रथ दीजिये । मैं आपको निर्धारित समय के पूर्व ही पहुँचा दूंगा । दधिपर्ण का साहस बढ़ा । नल को इच्छित अश्व और रथ मिल गया । दधिपर्ण तत्काल आवश्यक सामग्री और अपने छत्र-चामर धारक आदि चार सेवकों के साथ रथ में बैठा। नल ने देव-प्रदत्त श्रीफल और आभूषण की पेटिका को एक वस्त्र से कमर पर बाँधी और रथारूढ़ हो कर मन्त्राधिराज का स्मरण कर प्रस्थान किया । रथ, देव-विमान के समान शीघ्रगति से चला । अति वेग से चलते हुए रथ से, वायुवेग से दधिपर्ण का उत्तरीय वस्त्र उड़ गया । राजा ने नल को रथ रोक कर वस्त्र लाने का कहा । जल ने कहा--" महाराज ! अब तक बस्त्र पच्चीस योजन दूर हो गया । अब लौटना अनुचित होगा।" राजा ने दूर से एक अक्ष (बेड़ा) का वृक्ष देखा, जिस पर भरपूर फल लगे हुए थे। राजा ने नल से कहा--
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