Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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नारदजी का परिचय
एकदिन समुद्रविजयजी, वसुदेव और कंस के साथ सपरिवार बैठे थे कि नारदजी वहाँ आ पहुँचे । समुद्रविजयजी आदि ने नारदजी का सम्मान किया । आदर-सम्मान से प्रसन्न हो कर नारदजी आकाश मार्ग से अन्यत्र चले गए। उनके जाने के बाद कंस ने पूछा'ये कौन थे ?" नारद का परिचय देते हुए समुद्रविजयजी ने कहा
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पूर्वकाल में इस नगर के बाहर यज्ञयश नाम का एक तपस्वी रहता था । उसके यज्ञदत्ता नाम की स्त्री थी । सुमित्र उनका पुत्र था। सुमित्र की पत्नी का नाम सोमयशा था । कोई जृंभक देव, च्यव कर सोमयशा की कुक्षि में, पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ । वही पुत्र यह नारद है । वे तापस लोग, एक दिन उपवास कर के दूसरे दिन उंछवृत्ति से ( खेत में से स्वामी के ले जाने के पश्चात् रहे हुए धान्य-कण ग्रहण कर ) आजीविका चलाते थे । एकबार वे तपस्वी, नारद को अशोक वृक्ष के नीचे सुला कर उछवृत्ति के लिए गये | बाद में कोई जृंभक देव उधर से निकला। नारद को देख कर उसके मन में प्रीति उत्पन्न हुई । उसने उपयोग लगा कर पहिचाना। वह उसके पूर्वभव का मित्र था । बालक के मुँह पर धूप आने लगी थी । देव ने बालक के स्नेह के वश हो कर, छाया को स्तंभित कर दी । छाया स्तंभित होने के कारण अशोकवृक्ष का दूसरा नाम 'छायावृक्ष' हुआ । अपना कार्य साध कर लौटते हुए देवों ने, नारद को उठाया और वैताढ्य पर्वत पर ले गए। वहाँ एक गुफा में रख कर उसका पालन किया। आठ वर्ष का होने पर देवों ने उसे प्रज्ञप्ति आदि अनेक विद्याएँ सिखाई । विद्या के प्रभाव से नारद आकाशगामी हुआ है । यह नारद इस अवसर्पिणी काल का नौवाँ नारद है और चरम शरीरी है--ऐसा त्रिकाल ज्ञानी श्री सुप्रतिष्ठ मुनि ने मुझे कहा था । यह प्रकृति से कलहप्रिय है । अवज्ञा करने से यह कुपित हो जाता है । यह भ्रमणप्रिय है ।
वसुदेव का देवकी के साथ लग्न
एकदिन कंस ने स्नेहवश वसुदेव को मथुरा बुलाया। वे समुद्रविजयजी की आज्ञा ले कर मथुरा गए । एकदिन जीवयशा के साथ बैठे हुए कंस ने वसुदेव से कहा--" मृतिका नगरी में मेरे काका देवक राज करते हैं । उनके 'देवकी' नाम की पुत्री, देवकन्या के समान सुन्दर है । वह आपके ही योग्य है । आप मेरे साथ वहाँ चलें और उसके साथ लग्न करें।" वसुदेव ने कंस की बात स्वीकार की और वे उसके साथ मृतिका नगरी
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