Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थङ्कर चरित्र
उपवासादि तप करने लगी और पक कर अपने आप पृथ्वी पर गिरे हुए फलों का पारणे में आहार करती हुई काल व्यतीत करने लगी ।
दमयंती के प्रभाव से वर्षा थमी और तापस जैन बने
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दमयंती सार्थवाह को सूचित किये बिना ही उसके डेरे में से निकल कर चल दी। जब सार्थवाह ने दमयंती को नहीं देखा, तो वह चिंतित हो गया और उसकी खाज में चरण चिन्हों का अनुसरण करता हुआ गुफा में पहुँच गया । उस समय दमयंती धर्म-ध्यान में लीन थी । सार्थपति संतुष्ट हो कर एक ओर बैठ गया । ध्यान पूर्ण होने पर वैदर्भी ने, वसंत सार्थवाह को देखा और कुशल-मंगल पूछा । सार्थवाह ने प्रणामपूर्वक आने का प्रयोजन बतलाया । उनकी वार्त्तालाप के शब्द निकट रहे हुए कुछ तापसों ने सुने । वे कुतूहलपूर्वक वहाँ आ कर बैठे और सुनने लगे। इतने में घनघोर वर्षां होने लगी । तापस चिन्तित हो उठे । 'अब क्या होगा ? जल-प्रवाह बढ़ रहा है । हमारे स्थान जलमय हो जाएँगे । कैसे बचेंगे हम -- इस प्रलयंकारी जल-प्रकोप से ?" दमयंती ने सभी को चिन्तातुर देख कर कहा--" बन्धुओं ! निर्भय रहो। तुम सब सुरक्षित रहोगे ।' वैदर्भी ने भूमि पर एक वर्तुल ( मण्डलाकार घेरा) बनाया और उच्च स्वर से बोली ; --
"
" यदि मैं सती हूँ, मेरा मन सरल और निर्दोष है और में जिनेश्वर की उपासिका होऊं, तो यह जलधर हमारे मण्डल की भूमि को छोड़ कर अन्यत्र बरसे ।"
सतीत्व के प्रभाव से वर्षा उस स्थान पर थम गई और अन्यत्र बरसने लगी । सती के प्रभाव को देख कर सभी अचरज करने लगे । 'यह कोई देवी है । मनुष्य में इतनी शक्ति नहीं होती कि वह प्रकृति का शासक बन जाय ।' वसंत गार्थवाह ने वैदर्भी से पूछा" देवी ! आप किस देव की आराधना करती है कि जिससे आप में ऐसी अलौकिक शक्ति उत्पन्न हुई ?"
--" बन्धु ! मैं परम वीतराग अर्हत प्रभु की उपासिका हूँ और एकनिष्ठ हो कर आराधना करती हूँ । इस आराधना के बल से ही में महान् क्रूर जीवों से भी सुरक्षित हूँ, निर्भय हूँ | सच्ची आराधना से आत्म-शक्ति विकसित होती है और सबल बनती हैं ।"
दमयंती ने धर्म का स्वरूप समझाया । वसंत सार्थवाह ने प्रतिबोध पा कर जिनधर्म स्वीकार किया और तापसों ने भी सार्थवाह का अनुसरण कर जिनधर्म स्वीकार
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