Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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दमयंती का भेद खुला
जाओ ।" पिंगल ने दमयंती का वचन मान्य किया और उस नगर में पधारे हुए मुनिवर के समीप प्रव्रजित हो गया ।
दमयंती का भेद खुला
विदर्भ नरेश को कालान्तर में मालूम हुआ कि उनके जामाता नल नरेश, जुए में राज्य और समस्त वैभव हार कर, दमयंती सहित वन में चले गए, तो राजा और रानी बहुत चिन्तित हुए । उनके जीवन में भी उन्हें सन्देह होने लगा। रानी रुदन करने लगी । बड़ी कठिनाई से धीरज बँधा कर, राजा ने अपने हरिमित्र नाम के चतुर अनुचर को खोज करने के लिए भेजा । हरिमित्र खोज करता हुआ अचलपुर पहुँचा । नल-दमयंती के राज्य-च्युत वनगमन और वर्षों तक अज्ञात होने के कारण उन्हें भी उन के जीवन में सन्देह उत्पन्न हो गया ! नरेश ओर रानी के हृदय शोकपूरित हो गए। रानी की आँखों में आँसू बहने लग । सारा राज्यपरिवार उदास हो गया । शोकाकुल स्थिति में हरिमित्र को सभी भूल गए। वह क्षुधा से व्याकुल था । राज्य प्रासाद से चल कर वह दानशाला में आया और भोजन करने बैठा । दमयंती की अध्यक्षता में भोजन दान दिया जा रहा था । हरिमित्र की दृष्टि दमयंती पर पड़ी। वह चौंका और उठ कर दसयंती के पास जा कर प्रणाम किया। उसने कहा
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- देवी! आप इस दशा में ? यहाँ ? मैं क्या देख रहा हूँ ? आप की चिन्ता में महाराज और महारानी शोकसागर में निमग्न हैं। उनकी आज्ञा से मैं आपकी खोज में भटकता हुआ यहाँ आया हूँ और आज आपके दर्शन कर कृतकृत्य हुआ हूँ । यह मेरा धन्यभाग है ।"
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इतना कह कर हरिमित्र शीघ्र ही राजप्रासाद में आया और राजा-रानी को दमयंती के वहीं उन्हीं के यहाँ होने की बात कह कर आश्चर्यान्वित कर दिया। रानो चन्द्रयशा सुनते ही दानशाला में आई और दमयंती को आलिंगन में ले कर बोली - "पुत्री ! तू सुलक्षणी एवं उत्तम सामुद्रिक लक्षणों से युक्त है, यह जानती हुई भी मैं तुझे पहिचान नहीं सकी । मुझे धिक्कार है । मेरी पुत्री के समान होती हुई, तू मुझ से भी अपरिचित रही। मैंने तो तुझे बचपन में देखी थी, सो पहिचान नहीं सको । परन्तु तू अपने मातृकुल में ही अपने को क्यों छुपाये रही ? क्यों बेटी ! तेरे भाल पर जो तिलक था, वह कहाँ गया ?" रानी ने जीभ से ललाट का मार्जन किया, तो तिलक दमकने लगा ।
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