Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
३३४
तीर्थङ्कर चरित्र
धर्म एवं सदाचार से पवित्र बनी आत्मा शक्तिशाली होती है । जो आत्मा जितनी अधिक आत्म-निष्ठ होती है, उसकी शक्ति उतनी संचित रहती है। उसकी आत्मा में और उसके वचन में ऐसी शक्ति होती है कि जो बड़े बड़े दुन्ति दल को भी भयभीत कर दे । दमयंती को आत्मा में धर्म का आत्मीय बल था। उस आत्म-बल ने बड़े-बड़े वीरों और पाशविक बल वाले सिन्हों और गजेन्द्रों के भी छक्के छुड़ा दिये । दस्यु-दल के पलायन जैसी अप्रत्याशित चमत्कारिक घटना ने सारे सार्थ को प्रभावित कर दिया । सार्थ के सभी लोग यह मानने लगे कि-यह कोई देवी है और इसी ने हमारी रक्षा की है । सार्थपति ने आगे बढ़ कर देवी को प्रणाम किया और परिचय पूछा । दमयंता ने अपना परिचय और राज्य-त्याग पति-वियोग आदि समस्त घटनाएँ कह सुनाई । सार्थवाह प्रभावित होता हुआ बोला;
"अहो ! यह कैसी विडम्बना है ? कौशल की महारानी इस दशा में ? धन्य हो माता ! तुमने अपनी प्रजा की इस भयानक वन में एक कुल-देवी के समान रक्षा की आप मेरे डेरे में पधारें और निःसंकोच रहें । हमें आपकी सेवा सौभाग्य प्राप्त होगा।"
राक्षस को प्रतिबोध
दमयंती सार्थवाह के पटगृह (डेरे) में रहने लगी। उस समय मेघ-गर्जना के साथ वर्षा होने लगी। तीन दिन तक वर्षा की झड़ी लगी रही। समस्त भूमि पानी, कीचड़ और हरियाली से व्याप्त हो गई। सभी गड्ढ़े पानी से भर गये । मार्ग पानी और कीचड़ में पट गया । मार्ग पर चलना दुभर हो गया । चलने वाले के पाँवों में कीचड़ इतना लग जाता कि जो एक प्रकार के जूतों का आभास देता था । वर्षा रुकने के बाद दमयंती सार्थवाह के डेरे से निकल कर बन में चली गई । अन्य पुरुषों के साथ रहना उमे स्वीकार नहीं था। पति से बिछुड़ने के बाद ही दमयंती उपवासादि तपस्या करने लगा थी। वह धीरे-धीरे चली जा रही थी कि अचानक उसके सामने एक यमराज जैसा भयानक गक्षम आ खड़ा हुआ । उसका शरीर पर्वत जैसा विशाल, चेहरा विकराल, लम्बे-लम्बे दांत और मुंह में से भट्टी के समान अग्नि-ज्वाला निकल रही थी । जीभ सर्प के समान लपलपा रही थी। उसका वर्ण काजल के समान काला और भयानक था। वैदी को देखते ही वह बोला--
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org