Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंङ्कर चरित्र
आता है । यही हुआ । ज्यों-ज्यों क्षण बीतते गए, दमयन्ती की निराशा बढ़ने लगी, दुःख का घाव रिसने लगा और अन्त में हताश हो, पछाड़ खा कर गिर गई और मूच्छित हो गई । प्रातःकाल और शीतल वायु की ठण्डक के कारण वह अधिक समय मूच्छित नहीं रह सकी । सावचेत होते ही वह हृदयद्रावक विलाप करने लगी । उसे आया हुआ प्रातःकालीन दुःस्वप्न भी उसके हृदय को चीर रहा था । उसने समझ लिया कि में पतिदेव रूपी आम्रवृक्ष पर बैठ कर सुगन्धित पुष्प और मधुर फल के समान राज्य-सुख भोग रही थी, परंतु दुर्देव रूपी गजराज ने मेरे पति रूप वृक्ष को उखाड़ दिया और में पति से दूर हो गई। हा, दुर्देव ! अब मुझ हतभागिनी को पतिदर्शन होना दुर्लभ है । हे प्रभो ! .. वह बहुत रोई । पृथ्वी पर लोट-लोट कर रोती रही । उसका विलाप किसी क्रूर व्यक्ति के मन को भी कोमल बना कर आँखों से दो बूंद पानी टपका दे- ऐसा था । रो-रो कर हृदय का भार हलका होने पर उत्पन्न शिथिलता ने उसे कुछ सोचविचार के योग्य बनाया । वह उठबैठी और अपने वस्त्र को ठीक किया । उसकी दृष्टि वस्त्र पर लिखे रक्तवर्णी अक्षरों पर पढ़ी। उसने तत्काल वस्त्र को ठीक करके पढ़ा। वह समझ गईपति का पलायनवाद । पहले तो उसे कुछ संतोष हुआ कि पति के हृदय-सरोवर में में एक हंसिनी के समान रम रही हूँ। पति का प्रेम मेरे प्रति यथावत् है । मेरे हित को सोच कर और मुझे कष्टों से बचाने के लिए उन्होंने मेरा त्याग किया है ।' किंतु पति वियोग का विचार आते ही हृदय में ज्वाला के समान दुःख का आवेग भभक उठा। वह फिर रोने लगी और रोती रोती पति को उपालंभ देती हुई बोली ;
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" नाथ ! यह आपने क्या अनर्थ कर डाला ? आपसे दूर रह कर में सुखी रह सकूंगी क्या ? आपके बिना वे भव्य भवन और राजसी-साधन मुझे सुखी कर सकेंगे ? मैं आपके साथ हजारों कष्ट सह कर भी संतुष्ट रह सकती थी । आपकी छाया में रहते हुए मैं शान्ति से मर भी सकती थी। किंतु अब आपके बिना मेरा जीवन कैसे व्यतीत हो सकेगा ? मेरे हृदय में वियोग की ज्वाला दिन-रात जलती रहेगी । जल-जल और तड़पतड़प कर जीवन बिताने से तो मरना ही उत्तम है, जिससे कुछ क्षणों में ही समस्त दुःखों से छुटकारा हो जायगा ।" दमयंती ने आत्मघात कर मरने का विचार किया। उसने घुल-घुल कर जीवन बिताने की अपेक्षा मरना सुखदायक माना। उसने मरने का निश्चय करने के पूर्व पुनः सोचा। उसकी धार्मिक दृष्टि आत्मघात में बाधक बनी और पति आज्ञा भी आड़े आई । “पति की इच्छा है कि मैं सुरक्षित स्थान पर पहुँच जाऊँ और भावी मिलन की प्रतीक्षा करूँ ।
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