Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र
"स्वामिन् ! महादेवी सीताजी अकेली पुण्डरीकपुर में चिन्तित रहती होगी। अब तो उनके प्रिय पुत्र भी उनके पास नहीं हैं। उनके दिन कैसे व्यतीत होते होंगे ? यदि आप आज्ञा दें, तो हम उन्हें यहां ले आवें।"
--" भाइयों ! मुझे पहले भी पूर्ण विश्वास था और आज भी है कि सीता निर्दोष है और सती है । लोकापवाद सर्वथा झूठा है। फिर भी मैं लोकापवाद की उपेक्षा नहीं कर सकता । खोटा लोकापवाद भी शक्ति रखता हैं। वह बिना शक्तिशाली प्रतिकार के मिट नहीं सकता। उसे मिटा कर नष्ट करने के लिए उसे दिव्य करना होगा। मुझे पूर्ण विश्वास है कि सीता दिव्य में सफल होगी। फिर मैं उसे हर्ष एवं आदर के साथ स्वीकार करूँगा।"
रामभद्रजी की बात स्वीकार कर, सुग्रीव विमान ले कर, पुण्डरीकपुरी गये और सीता को प्रणाम कर निवेदन किया--" महादेवी ! स्वामी ने मुझे अपने पुष्पक विमान सहित आपको ले आने के लिए भेजा है, पधारिये ! वे सब आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।"
___ --"भाई ! अयोध्या से निकाले जाने का पहला संताप भी अबतक मेरे मन से मिटा नहीं, जिन्होंने बिना न्याय किये ही मुझे दण्डित किया, उनके पास पहुँच कर नया दुःख प्राप्त करने की भूल अब मैं नहीं कर सकूँगी। तुम जाओ"-सीताजी ने अपने हृदय का दुःख व्यक्त किया।
-"आदर्श महिला-रत्न ! आपका कहना ठीक है। भवितव्यता वश अघटित घटना घट गई है। उसे भूल जाइए। स्वामी को और हम सब को उसका दुःख है । रामभद्रजी, दिव्य द्वारा आपका कलंक उतार कर, सम्मान पूर्वक आपको स्वीकार करने के लिए तत्पर हैं । महेन्द्रोदय उद्यान में दिव्य करने की तैयारियां हो रही है। नगर के प्रतिष्ठितजन और सभी नागरिक दिव्य-मण्डप में उपस्थित हैं। अब आप विलम्ब नहीं करें"--सुग्रीव ने शीघ्रता की।
--"मैं दिव्य करने को तत्पर हूँ। यह उस समय भी हो सकता था"--कह कर सीता चलने के लिए तत्पर हो गई। विमान पुण्डरीकपुर से उड़ कर अयोध्या के महेन्द्रोदय उद्यान में आया। विमान के उतरते ही लक्ष्मण और अन्य नरेशों ने सीता का स्वागतसत्कार किया, नमस्कार किया और लक्ष्मणजी ने निवेदन किया--
"महादेवी ! पधारो, नगरी तथा गृह में पधार कर उसकी शोभा बढ़ाओ। उसे पवित्र करो।"
--"वत्स ! जब तक मेरा कलंक दूर नहीं होता, मैं न तो नगर में प्रवेश कर
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