Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र
है तेरा अभिग्रह और ऐसा है तू वैयावृत्यी ? धिक्कार है तेरे इस दाम्भिक जीवन को।"
"मुनिवर ! शान्त होवें और मुझ अधम को क्षमा प्रदान करें। मैं अब आपकी सेवा में तत्पर रहूँगा और आपकी योग्य चिकित्सा की जावेगी । मैं आपके लिए शुद्ध प्रासुक जल लाया हूँ, आप इसे पियें। आपको शांति होगी"--नन्दीसेन मुनि ने शांति से निवेदन किया और पानी पिला कर कहा--"आप जरा खड़े हो जाइए, अपन उपाश्रय में चलें । वहाँ अनुकूलता रहेगी।"
__ “तू अन्धा है क्या ? अरे दम्भी ! मैं कितना अशक्त हो गया हूँ। मैं करवट भी नहीं बदल सकता, तो उठूगा कैसे ?”
__नन्दीसेनजी ने उस रोगी दिखाई देने वाले साधु को उठा कर कन्धे पर चढ़ाया और चलने लगे, किन्तु वह मायावी पद-पद पर वाक्-बाण छोड़ता रहा । वह कहता-- "दुष्ट ! धीरे-धीरे चल । शीघ्रता करने से मेरा शरीर हिलता है और इससे पीड़ा होती है।" नन्दीसेनजी धीरे-धीरे चलने लगे, किन्तु देव को तो उनकी परीक्षा करनी थी। उस मायावी साधु ने नन्दीसेनजी पर विष्ठा कर दी और धोंस देते हुए कहा--"तू धीरे-धीरे क्यों चलता है ? मेरे पेट में टीस उठ रही है और मल निकलने वाला है ।" नन्दीसेनजी का सारा शरीर विष्ठा से लथपथ हो गया और दुर्गन्ध से आसपास का वातावरण असह्य होगया । किन्तु नन्दीसेनजी ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। वे यही सोचने लगे कि-- " इन महात्मा के रोग की उपशांति कसे हो ? इन्हें भारी पीड़ा हो रही है," आदि ।
जब देव ने देखा कि भर्त्सना और अपमान करने पर और विष्ठा से सारा शरीर भर देने पर भी महात्मा का मन वैयावत्य से विचलित नहीं हआ, तो उसने अपनी माया का साहरण कर लिया और स्वयं देवरूप में उपस्थित हो कर नन्दीसेनजी की वन्दना की, क्षमायाचना की । उसने इस परीक्षा का कारण इन्द्र द्वारा हुई प्रशंसा का वर्णन किया और बोला;--" महामुनि ! आप धन्य हैं । कहिये मैं आपको क्या दूँ ?' मुनिश्री ने कहा-- "गुरुकृपा से मुझे वह दुर्लभ धर्म प्राप्त है, जो तुझे प्राप्त नहीं है । इसके सिवाय मुझे किसी वस्तु की चाह नहीं है ।" देव चला गया। नन्दीसेन मुनि ने बारह हजार वर्ष तक तप और संयम का शुद्धतापूर्वक पालन किया और अन्त समय निकट जान कर अनशन किया। चालू अनशन में उन्हें अपने दुर्भाग्य एवं स्त्रियों द्वारा तिरस्कृत जीवन का स्मरण हो आया। उन्होंने निदान किया--"मेरे तप-संयम के फल से मैं " रमणीवल्लभ" बनूं । बहुतसी रमणियों का प्राणप्रिय होऊँ ।" आयु पूर्ण होने पर वे महाशुक्र देव हुए और वहाँ से च्यव कर वसुदेव हुए। उनका स्त्रीजनवल्लभ होना उस निदान का फल है।"
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