Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तोषंकर चरित्र
हंस की वाणी से कनकवती प्रसन्न हुई। उसे भी अपने लिए हंस को मुक्त करना हितकारी लगा । उसने सोचा-'यह हंस कोई मामूली पक्षी नहीं होना । पक्षी के रूप में कोई विशिष्ट आत्मा है। उसने हंस को छोड़ दिया। हंस उड़ मया और आकाश में रह कर कुमारी के पास एक चित्रपट डाला, जिसमें वसुदेवजी का रूप आलेखित था । हंस आकाश में रह कर बोला
"भद्रे ! इस चित्र में उस विशिष्ट युवक का रूप उतारा गया है। इसे भली प्रकार देख कर ध्यान में जमा ले । यही पुरुष स्वयंवर में आएगा।"
कनकवती चित्र देख कर प्रसन्न हुई और बोली
"भव्यात्मा ! आप कौन हैं ? मैं नहीं मानती कि आप पक्षी हैं । अवश्य ही आप कोई महापुरुष हैं, या देव हैं और मेरे हित के लिए आपने रूप परिवर्तन कर के यह कष्ट उठाया है।"
राजकुमारी ने देखा-उस हंस पर एक खेचर युरुष सवार है । वेष और आभूषण से वह सुशोभित है और देवपुरुष के समान दिखाई देता है। उसने कहा-“मैं चन्द्रातप नामक खेचर हूँ और तेरे भावी पति की सेवा में रहता हूँ। हाँ, कुमार वसुदेव यहाँ स्वयवर में, दूसरे व्यक्ति के दूत बन कर, तुम्हारे पास आवेंगे। तुम सावधान रहना, भुलावे में मत आना । मैने चित्रपट तुम्हारी सावधानी के लिए ही दिया है।"
खेचर चला गया । राजकुमारी ने सोचा--सद्भाग्य से ही मुझे ऐसा दैविक-सन्देश प्राप्त हुआ। वह अनिमेष नयनों से चित्र देखने लगी। मोहावेग में विरह-पीड़ित हो कर वह निःश्वास लेने लगी। कभी उस चित्र को मस्तक पर चढ़ाती और कभी हृदय से लगाती । उसके सोच-विचार का विषय, वसुदेव कुमार ही बन मया था।
चन्द्रातप, कनकवती के पास से विदा हो कर, विद्याधर नगर गया और विद्याशक्ति से उसी रात्रि वसुदेवजी के शयन-कक्ष में पहुंचा। वसुदेवजी निद्रामग्न थे। चन्द्रातप उनके पांव दबाने लगा। वसुदेव जागे । चन्द्रातप ने एकान्त में वसुदेव को कनकवती का सन्देश सुनाते हुए कहा--"कनकवती आपके विरह में तड़प रही है। मैंने आपका चित्र बना कर उसे दिया था। चित्र देख कर वह अत्यन्त प्रसन्न हई। उसे मस्तक और हृदय से लगाया । वह आप ही के विचारों में मग्न हो गई । आगामी शुक्ल पक्ष की पञ्चमी के दिन स्वयंवर होगा । आज कृष्णपक्ष की दसवीं तिथि है। आपको वहाँ यथासमय पहुंच जाना है । वह सुन्दरी आपकी प्रतीक्षा में ही है।"
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