Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र
वसुदेव उसी ओर गए और राजकुमारी के सनक्ष पहुँच गए । उस समय राजकुमारी चित्र देखने में तन्मय हो रही थी। वसुदेव पर दृष्टि पड़ते ही वह स्तब्ध रह कर, अपलक देखती रही--कभी चित्र को और कभी वसुदेव का । अचानक ही अपनी इष्ट-सिद्धि देख कर उसकी प्रसन्नता का पार नहीं रहा । वह वसुदेव का सत्कार करने उठी और बोली;--
"हृदयेश्वर ! में कितनी भाग्यशालिनी हूँ कि आप अनायास घर बैठे ही मुझे प्राप्त हो गए । मेरे मनोरथ सफल हुए । देव ने मुझे आपका जो सन्देश दिया था, वह पूर्ण रूप से सत्य सिद्ध हुआ।" .
___ "भद्रे ! मैं तुम्हारा पति नहीं ! मैं तो तुम्हारे पति का सन्देशवाहक दूत हूँ। तुम्हारे पुण्य अत्यंत प्रबल है । तुम मनुष्य नहीं, एक महान् वैभवशाली देव की पत्नी होगी। तुम्हें पहले जो सन्देश मिला था, वह मेरे लिए नहीं, इन्द्र के लोकपाल कुबेर के लिए था। वे यहाँ आये हैं । मैं तुम्हें उनका सन्देश सुनाने आया हूँ। तुम स्वयंवर में उन्हें वरण कर के, उनकी पटरानी बनो"-वसुदेव राजकुमारी को समझाने लगे।
“महाभाग ! वे कुबेर देव, अब मेरे लिए आदर-सत्कार के योग्य हैं । उन्होंने स्नेहवश मेरी वर्तमान दशा की ओर नहीं देखा होगा। आप स्वयं सोचिये कि कहाँ तो वे वक्रिय-शरीरी देव और कहाँ मैं हाड़-मांसादि युक्त दुर्गन्धमय औदारिक शरीरधारिणी नारो? उनका मेरा सम्बन्ध कैसे हो सकता हैं ? मैं समझती हूँ कि आपको दूत बनाना भी कदा. चित् किसी सुखद उद्देश्य से हो !"
-" शुभे! तुम्हें देव की अवगणना नहीं करना चाहिए । इसका परिणाम हितकारी नहीं होगा, कदाचित् तुम्हें अनिष्ट परिणाम मनाला पड़े। तुम्हें ज्ञात होगा कि ऐसी अवगणना का फला 'स्वदन्ती' (दमयंती) के लिए कितना अनिष्टकारी हुआ था ? मोचो और अपने निर्णय पर पुनः विचार करो"--वसुदेव ने कुमारी को समझाया।
--"आपके द्वारा "कुबेर" नाम सुनते ही मेरे मन में उनके प्रति आकर्षण बढ़ा। में भी सोचती हूँ कि मेरा उनसे पूर्वभव का कोई सम्बन्ध है। फिर भी भव-सम्बन्धी अनुलघनीय विपरीतता की उपेक्षा कैसे हो सकती है ? में उनका आदर-सत्कार कर सकती है, किंतु पति के रूप में स्वीकार नहीं कर सकती। आप इस विषम स्थिति की ओर उनका ध्यान खिचेंगे, तो वे अवश्य समझ जाएँगे । हृदयबर ! आप ही मेरे पति हैं । आपने मेरे हृदय में स्थान पा लिया है । अब वह स्थायी ही रहेगा। इस हृदय में पति-भाव से अब कोई प्रवेश नहीं कर सकता । मेरी वरमाला आज आ ही के कण्ठ में आरोपित होगी"--कनकवती ने अपना निर्णय सुना दिया ।
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