Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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वसुदेव पर कुबेर की कृपा x कनकवती से लग्न
-" में स्वजनों की अनुज्ञा ले कर सायंकाल के समय प्रस्थान करूंगा । तुम मुझे प्रमोद वन में निलना । वहाँ से अपन साथ ही चलेंगे ।"
वसुदेव पर कुबेर की कृपा + कनकवती से लग्न
स्वजनों की आज्ञा ले कर वसुदेव पेढालपुर पहुँचे । हरिश्चन्द्र नरेश ने वसुदेव का स्वागत-सत्कार किया और उन्हें लक्ष्मीरमण उद्यान के भवन में ठहराया। उद्यान अत्यन्त रमणीय था । वसुदेव उद्यान की शोभा देख ही रहे थे कि वहाँ एक रत्न जड़ित देव -विमान उतरा । वसुदेव को ज्ञात हुआ कि यह 'कुबेर नामक वैमानिक देव' का विमान है । विमान रुका । विमान में बैठे हुए देव की दृष्टि वसुदेव पर पड़ी । देव ने सोचा - यह मनुष्य कोई अलौकिक प्रतिभा वाला है। इस प्रकार की आकृति भूचर मनुष्यों में तो क्या, विद्याघरों और देवों में भी नहीं मिलती । वास्तव में यह कोई उत्तम भाग्यशाली पुरुष है । देव ने ज्ञानबल से वसुदेव को पहिचाना, फिर संकेत कर के अपने पास बुलाया । वसुदेव चल कर देव के निकट आये और प्रणाम किया। देव ने उचित सत्कार के बाद कहा; --
" महाशय ! आपके योग्य ही मेरा एक काम हैं । मैं चाहता हूँ कि आप मेरे दूत बन कर राजकुमारी के पास जावें और और उसे मेरा सन्देश देवें कि
" देवेन्द्र के उत्तर-दिशा के लोकपाल कुवेर (जो वैश्रमण कहलाते हैं) तुम्हें चाहते हैं । पूर्वभव में तुम कुबेर की प्रिय देवांगना थीं। तुम्हारे स्नेह के कारण वे यहां आये हैं । स्वयंवर में तुम उन्हें ही अपना पति बनाना । मानुषी होते हुए भी कुबेर तुम्हें देवी के समान ही स्वीकार करेंगे ।"
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" मेरी ओर से तुम यह सन्देश, कनकवती को दो और उसे मेरे अनुकूल बनाओ । मेरे प्रभाव तुम दूसरों से अदृश्य रह कर कनकवती तक पहुँच सकोगे ।"
वसुदेव अपने आवास में आथे और राजसी वेशभूषा उतार कर, दूत के योग्य साधारण वस्त्र पहिने और राज्य के अन्तःपुर में आये । कनकवती के स्वयंवर की हलचल वहाँ भी बहुत थी । दास-दासियां इधर-उधर जा आ रही थी । वे बिना रोक-टोक के अन्त:पुर में पहुँचे । दासियों की बातचीत और गमनागमन से अनुमान लगा कर, वे राजकुमारी की ओर बढ़ रहे थे । एक दासी ने दूसरी दासी से पूछा - " राजदुलारी अभी कहाँ है ? क्या कर रही है ?” उसने कहा- " वे अपने कक्ष में अकेली बैठी है ।" यह बात सुन कर
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