Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र
उसके जामाता थे। सुभूम ने अपने ससुर मेघनाद को वैताढ्य पर्वत की दोनों श्रेणियों का राज्य और ब्रह्मास्त्र आग्नेयास्त्र आदि दिव्य-अस्त्र दिये। उसी के वंश में रावण और विभीषण हुए । विभीषण के वंश में मेरे पिता विद्यद्वेग हुए । वे दिव्यास्त्र हमारे पास हैं। आप उन्हें ग्रहण कर के हमारे पिता को मुक्त कराइए । दिव्यास्त्र भी आप जैसे भाग्यशाली को ही सफल होते हैं।"
जब त्रिशिखर ने सुना कि 'मदनवेगा का एक भूचर मनुष्य के साथ लग्न कर दिया, तो वह क्रुद्ध हो गया और सेना ले कर यद्ध करने आया। इधर विद्याधरों ने एक मायावी रथ तैयार कर के वसुदेव को उसमें बिठाया और दधिमुख आदि सैनिक उसके सहायक बने । युद्ध प्रारम्भ हो गया । अन्त में वसुदेव ने इन्दास्त्र से त्रिशिखर राजा का मस्तक काट कर मार डाला और अपने ससुर को मुक्त कराया।
वसुदेव के मदनवेगा से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम 'अनादृष्टि' रखा।
जरासंध द्वारा वसुदव की हत्या का प्रयास
एकबार वसुदेव ने मदनवेगा को 'वेगवती' के नाम से पुकारा। यह सुन कर मदनवेगा क्रुद्ध हो गई । उसके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि 'मेरे पास रहते हुए भी इनके मन में वेगवती बसी हुई है, इससे उसी का नाम लेते हैं । मेरे लिए इनके हृदय में स्थान नहीं है, मेरे साथ ये प्रसन्न नहीं रहते।' इस प्रकार सोच कर वह रूठ गई और एकान्त कक्ष में जा कर सो गई। उधर त्रिशिखर नरेश की विधवा रानी सूर्पणखा ने, अपने पति को मारने का वैर लेने के लिए मदनवेगा का रूप बना कर और मदनवेगा के कक्ष में आग लगा कर वसुदेव को वहाँ से ले गई । फिर उन्हें राजगृही नगरी के निकट आकाश से नीचे गिरा कर लौट गई । पुण्य-योग से वसुदेव घास की गंजी पर गिरे, जिससे कुछ भी चोट नहीं लगी । वे वहाँ से चल कर राजगृही नगरी में पहुंचे। इधर-उधर भटकते हुए वे जुआ-घर में पहुँच गए । वहाँ द्युत-क्रीड़ा में व काटि सुवर्ण जीते और उस जाते हुए सभी स्वर्ण को याचकों को बाँट दिया । उनको उदारता की ख्याति सुन कर, सुभटों ने आ कर उन्हें पकड़ लिया और जरासंध नरेश के दरबार में ले चले । उन्होंने सुभटों से पूछा-- "तुमने मुझे बिना किसी अपराध के क्यों पकड़ा और अब कहाँ ले जा रहे हो ?” सुभटों के अध्यक्ष ने कहा;--
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