Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अरिष्टनेमिजी-पूर्वभव
अग्नि-ज्वालाएँ उठ रही है, समीप ही एक सुन्दर युवती बैठी है और उसके समीप एक पुरुष खड्ग उठाये खड़ा है । कुमार शीघ्र ही उस पुरुष के निकट पहुंचा और बोला;--
"रे नराधम ! इस अबला को छोड़ कर इधर आ। मेरे साथ युद्ध कर।"
वह पुरुष कुमार की ओर आकर्षित हुआ । दोनों युद्ध-रत हुए । बहुत देर तक शस्त्र-युद्ध होता रहा । फिर बाहुयुद्ध हुआ। जब उस विद्याधर ने अपराजित को अजेय माना, तो नागपाश फेंक कर राजकुमार को बाँध लिया, किन्तु राजकुमार ने उस पाश को भी एक झटके से तोड़ डाला । फिर विद्याधर ने अपनी अनेक प्रकार की विद्याओं का प्रयोग किया। किन्तु राजकुमार अपराजित के सामने उसकी एक नहीं चली। अपराजित के किये हुए प्रहार से विद्याधर धराशायी हो गया। राजकुमार अपराजित का साहस, शौर्य, रूप और प्रभाव देख कर वह पीड़ित युवती अपनी पीड़ा भूल कर मोह-मुग्ध हो गई और कुमार को अनुराग पूर्ण दृष्टि से देखने लगी। राजकुमार ने भूलुण्ठित विद्याधर को योग्य उपचार से सचेत किया। विद्याधर सावधान हो कर अपराजित के शौर्य और परोपकारितादि गुणों के आगे झुक गया। उसने कहा; --
“नर-श्रेष्ठ ! आपने योग्य समय पर पहुँच कर मुझे नरक में जाने योग्य दुष्कृत्य से बचा लिया। कामवासना से निराश हो कर मैं इस सुन्दरी की हत्या करना चाहता था, किन्तु आपने मुझे नारी-हत्या के पाप से बचा लिया । लीजिये मेरे पास एक मणि और एक मूलिका है। मणि के जल से मूलिका को घिस कर मेरे घाव पर लगाने की कृपा करें।"
कुमार ने वैसा ही किया, जिससे विद्याधर का घाव भर गया और वह स्वस्थ हो गया। अब वह राजकुमार अपराजित को अपना परिचय इस प्रकार देने लगा;
"वैताढय पर्वत पर रथनपुर नगर के विद्याधरपति अमृतसेन की यह पुत्री है। इसका नाम रत्नमाला है । इसके योग्य वर के विषय में भविष्यवेत्ता ने कहा कि-"हरिनन्दी राजा का पुत्र अपराजित इसका पति होगा।" इस भविष्यवाणी को सुन कर यह स्त्री अपराजित की ओर आकर्षित हो गई और उसके ही सपने देखने लगी। यह अपराजित के सिवाय और किसी का विचार ही नहीं करती । एक बार मैने इसे देखा । मेरा मन इस पर मुग्ध हो गया। मैने इसके पिता के समक्ष इसके साथ मेरा विवाह करने की मांग रखी, किन्तु इसने स्पष्ट कह दिया कि "मेरा पति राजकुमार अपराजित ही हो सकता है, दूसरा नहीं। मैं आजन्म अविवाहित रह सकती हूँ, किन्तु अपराजित को छोड़ कर और किसी को स्वीकार नहीं कर सकती।" इसके उत्तर से मैं हताश हुआ। मैने इसे बलपूर्वक प्राप्त करने का निश्चय किया।"
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