Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
२२२
तीर्थकर चरित्र
तीन सौ हाथ लम्बे-चौड़े और दो पुरुष-प्रमाण ऊँडे खड्डे को चन्दन के काष्ठ से भरा गया। अग्नि प्रज्वलित की गई।
वैताढ्य पर्वत की उत्तर श्रेणी में हरिविक्रम राजा का पुत्र जयभूषण कुमार था। उसके आठ सौ रनियाँ थी। एक बार रानी किरणमण्डला को उसके मामा के पुत्र के साथ क्रीड़ा करती देख कर क्रुद्ध हुआ। उसने उस रानी को निकाल दी और स्वयं विरक्त हो कर श्रमण बन गया। फिरणमण्डला रानी वैरभाव लिये हुए दुःखपूर्वक जीवन पूर्ण कर राक्षसी हुई। जयभूषण मुनि विशुद्ध संयम और उग्र तप करते हुए अयोध्या नगरी के समीप उद्यान में भिक्षुप्रतिमा धारण कर ध्यानस्थ हो गए। राक्षसी अपने पूर्वभव के वैर से खिची हुई आई और उपद्रव करने लगी। मुनिवर अपने दृढ़ चरित्र-बल से अडिग रहे और शुभ ध्यान में तल्लीन हो कर, घातिकर्मों का क्षय कर के केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त कर लिया। केवलोत्सव करने के लिए इन्द्र और देवी-देवता आए ।
इधर केवलज्ञानी भगवान् का केवलोत्सव हो रहा था, उधर-दूसरी ओर सीता के दिव्य की तैयारियां हो रही थी । केवलोत्सव के लिए आए हुए देवों ने सीता के दिव्य की तैयारी देख कर इन्द्र को निवेदन किया-"स्वामिन् ! जनता के द्वारा झूठी निन्दा सुन कर, राम ने सीता को वनवास दिया था। आज उसकी पवित्रता की परीक्षा करने के लिए अग्निप्रवेश कराया जा रहा है।"
इन्द्र ने अपने सेनाधिपति को सीता की सहायता करने की आज्ञा दी और स्वयं कवलोत्सव में संलग्न हो गए।
सीता दिव्य करने के लिए उस अग्निकुण्ड के समीप आई । कुण्ड में से उठती हुई विशाल ज्वालाएँ देख कर रामभद्रजी के मन में विचार उत्पन्न हुआ-" में कितना अस्थिर एवं भीरु मन का हूँ । सीता को पवित्र समझता हुआ भी मैने उसे वनवास दिया और उसका तथा अपना जीवन दुःखमय बनाया । आज फिर मैं आगे हो कर उसे अग्नि में झोंक रहा हूँ। देव और दिव्य की विषम गति है । अशुभ कर्मों का उदय हो, तो जीवित स्त्री को जलाने और स्वयं आयुपर्यन्त पश्चात्ताप की आग में जलने का उपाय कर लिया है--मैने। मैने ही चाह कर यह महाकष्ट उपस्थित किया है । अब क्या होगा. ....." राम चिन्ता में डूबे हुए थे। इधर सीता अग्निकुण्ड के समीप आ कर खड़ी हो गई। उसने पञ्च परमेष्ठि का स्मरण किया और अरिहन्त प्रभु को नमस्कार कर के बोली;--
“उपस्थित जन-समूह, लोकपालों, देवी-देवताओ ! सुनों । मेने अपने जीवनभर में, अपने पति के अतिरिक्त किसी अन्य की अभिलाषा भी मन में की हो, तो यह अग्नि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org