Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
राम का मोह-भंग, प्रव्रज्या और निर्वाण
लगे। किन्तु राजगृह में प्रतिनन्दा राजा के यहाँ से उन्हें वैसा आहार मिल गया। देबों ने पंच-दिव्य की वर्षा की। नागरिकों की हलचल और हाथी-घोड़ों की भगदड़ देख कर उन्होंने यह अभिग्रह कर लिया कि 'यदि मुझे अरण्य में ही भिक्षा मिलेगी, तो तप का पारणा करूँगा, अन्यथा पारणा नहीं करूँगा ।' इस प्रकार अभिग्रह धारण कर के शरीर से निरपेक्ष हो कर समाधिपूर्वक विचरने लगे।
__उस समय विपरीत शिक्षा वाले वेगवान अश्व से आकर्षित, प्रतिनन्दी राजा वहां आया । घोड़ा अत्यंत प्यासा था। वह नन्दनपुण्य सरोवर को देख कर पानी पीने के लिए उसमें गया, किन्तु दलदल में फँस गया। उसका बाहर निकलना कठिन हो गया। थोड़ी देर में राजा की सेना भी वहाँ पहुँची और राजा तथा घोड़े को दलदल से निकाला। राजा ने उस सरोवर के किनारे ही पड़ाव लगा दिया और भोजन बना कर सभी ने वहीं खायापिया । उधर मुनिराज रामभद्रजी ने ध्यान पूर्ण किया और पारणे के लिए चले, तो वहीं आ पहुँचे । राजा ने बड़े आदर-सत्कार एवं श्रद्धा युक्त वन्दन किया और बचा हुआ आहार मुनिवर को प्रतिलाभित किया। मुनिराज ने वहीं पारणा किया। देवों ने पुष्पवृष्टि की। मुनिराज ने राजा को धर्मोपदेश दिया। राजा ने सम्यग्दृष्टि हो कर बारह व्रत धारण किये । वन में रहते हुए मुनिराज मासखमण. द्विमासखमण आदि उग्र तप और विविध प्रकार के आसन से ध्यान करने लगे। एक बार वे कोटिशिला पर बैठ कर ध्यान करने लगे । ध्यान की धारा बढ़ी और वे क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होने लगे। उधर इन्द्र बने हुए सीता के जीव ने अवधिज्ञान से महामुनि रामभद्रजी को देखा । उन्हें क्षपक-श्रेणी पहुँचते देख कर विचार हुआ--' मुझे तो अभी कुछ भव करना है। यदि मुनिराज मुक्ति प्राप्त कर लेंगे, तो मुझे इसका सहवास नहीं मिलेगा। यदि ये अभी अपनी साधना में ढीले बन जायँ, तो आगे के मनुष्य-भव में हमारा फिर सम्बन्ध जुड़ जाय'--इस प्रकार विचार कर इन्द्र तत्काल मुनिवर के समीप आया। उसने वहाँ बसंतऋतु जैसी प्रकृति और मोहक तथा सुगन्धित पुष्पों युक्त उद्यान की विकुर्वणा को । सुगन्धित मलयानिल चलने लगा, कोयल मधुर शब्द गुंजाने लगी, पुष्पों पर भ्रमर मँडराने लगे और सभी वृक्ष तथा लताओं के पुष्पों से कामोद्दीपक वस्त की बहार फूटने लगी। ऐसे वातावरण में इन्द्र, सीता का रूप बना कर अन्य स्त्रियों के साथ ध्यानस्थ मुनिराज के पास आया और कहने लगा--
"आर्यपुत्र ! मैं आपकी प्राणप्रिया सीता हूँ। मैं आपके पास कृपा की याचना ले कर आई हूँ। उस समय मैने आपकी बात नहीं मानी और रूठ कर दीक्षित हो गई;
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org