Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र
से मथुरा के सारे राज्य में, देव द्वारा उत्पन्न किया हुआ उपद्रव शांत हो गया। इससे प्रजा और राजा को अत्यन्त प्रसन्नता हुई । भरत नरेश ने मुनिवरों की सेवा में उपस्थित हो कर निवेदन किया--
"महात्मन् ! नगर में पधारें और मेरे यहाँ से आहारादि ग्रहण कर अनुग्रहित करें।"
"नहीं राजन् ! हमारे लिए राजपिण्ड ग्राह्य नहीं है और निमन्त्रित स्थान से आहारादि ग्रहण करना भी हमारा आचार नहीं है । तुम किसी प्रकार का विचार मत करो"--प्रमुख मुनिराज ने अपना नियम बतलाया।
"भगवान् ! कृपा कर कुछ दिन और बिराजें और धर्मोपदेश से जनता को लाभान्वित करें"--भरत नरेश ने प्रार्थना की।
"राजन् ! चातुर्मास काल पूर्ण हो चुका है। अब एक दिन भी अधिक ठहरना हमारे लिए निषिद्ध है अब हम विहार करेंगे'+ ।
लक्षमण का मनोरमा से लग्न
वैताढय गिरि की दक्षिण-श्रेणी के रत्नपुर नगर का राजा रत्नरथ था। उसकी चन्द्रमुखी रानी से मनोरमा नाम की कन्या का जन्म हुआ मनोरमा रूप-लावण्य में अति सुन्दर एवं मनोहारी थी। यौवन-वन में उसकी कांति विशेष बढ़ गई। राजा उसके योग्य
+ इस स्थल पर श्री हेमचन्द्राचार्य ने लिखा है कि वे सप्तर्षि एक बार पारणे के लिये अयोध्या नगरी में महंइत्त सेठ के घर गये । सेठ के मन में सन्देह उत्पन्न हुआ-'ये कैसे साधु हैं, जो वर्षाकाल में भी विहार करते रहते हैं " ? उसने उपेक्षापूर्वक व्यवहार किया, किंतु उसकी पत्नी ने आहार-दान दिया। वे मुनिवर आहार ले कर 'द्युति' नाम के आचार्य के उपाश्रय में पहुँचे । आचार्य ने उन सप्तषियों की वन्दना की पोर आदर-सत्कार किया। किन्तु उनके शिष्यों के मन में भी वही सन्देह उत्पन्न हुआ और उन्हें अकाल-विहारी जान कर वन्दनादि नहीं किया। सातों मुनिवर पारणा कर के चले गये। उनके जाने के बाद द्युति आचार्म ने उन मुनियों की महानता और चारणलब्धि का वर्णन किया। इससे उनके
ताप हुआ । अर्हद्दत्त श्रावक को भी पश्चात्ताप हुआ और उसने मथुरा जा कर मुनिवरों से क्षमा याचना की।'
__श्रावक और साधुओं का सन्देह उचित था । वर्षाकाल में पाद-विहार में जीव-विराधना बहुत होती है और निषिद्ध भी है । गगन-विहार में वैसा नहीं होना और उनका इस प्रकार जाना मर्याचा के अनुकूल हुआ क्या?
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