Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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सगर्भा सीता के प्रति सौतिया-डाह एवं षड्यन्त्र
२०३
करना चाहिये । सीताजी हमारी बड़ी बहिन है, हमारी उन पर अत्यन्त प्रीति है। हम उनका हित ही चाहती है। किंतु यह प्रसंग, कुल की पवित्रता से सम्बन्ध रखता है । इसलिए बड़े दुःख के साथ श्रीचरणों में यह कटु प्रसंग उपस्थित करना पड़ा है।"
रामभद्रजी को इस अप्रत्याशित विषय पर आघात लगा। उनके मन में यह तो पूर्ण विश्वास था कि सीता पूर्ण रूप से पवित्र है। उसे कलंकित एवं अपमानित करने के लिय यह जाल रची गई है। किन्तु वे तत्काल अपना विश्वास व्यक्त कर पत्नियों की बात काटना नहीं चाहते थे। अतएव उपेक्षा कर दी। पति की उपेक्षा जान कर रानियें लौट गई । वे अपनी दासियों द्वारा नागरिकजनों में सीता की निन्दा कराने लगी। लोग, पराई निन्दा में विशेष रुचि लेते हैं और बात को विशेष बढ़ा-चढ़ा कर सुनाते रहते हैं। इस प्रकार सीता की बुराई सर्वत्र होने लगी।
वसंतऋतु के आगमन पर राम ने महेन्द्रोदय उद्यान में जा कर क्रीड़ा करने का विचार किया और सीता से कहा
"प्रिये ! तुम गर्भ के कारण खेदित हो, इसलिए चलो अपन उद्यान में चलें। अभी वसत के आगमन से वनश्री भी प्रफुल्लित है । बकुलादि वृक्ष भी तुम्हारे जैसी महिलाओं की इच्छा, प्रसन्नता, छाया तथा स्पर्शादि से विकसित होते हैं। बड़ा सुहावना समय है । चलो, तुम्हें प्रसन्नता होगी, सुस्ती मिटेगी और बदन में स्फूर्ति आएगी।"
रामभद्रजी, सीताजी और अन्य परिवार को ले कर उद्यान में गये। वहां नागरिकजन भी वसन्तोत्सव मना रहे थे। सीता आदि ने भी उत्साहपूर्वक उत्सव मनाया, विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ की और भोजनादि किया । वे सुखपूर्वक बैठ कर विनोदपूर्ण आलाप-संलाप कर रहे थे कि अचानक सीताजी का दाहिना नेत्र फरका । स्त्री का दाहिना नेत्र फरकना अनिष्ट सूचक माना जाता है । सीता के मन में से प्रसन्नता लुप्त हो गई और मुख पर चिन्ता झलकने लगी । उन्होंने राम से कहा--" नाथ ! मेरा दक्षिण-नेत्र फरक रहा है। यह अशुभ-सूचक है। मैने राक्षस-द्वीप में रह कर इतने कष्ट सहन किये, फिर भी दुःख की इतिश्री नहीं हुई । क्या अभी और भुगतना शेष रह गया है ? क्या फिर दुर्दिन देखने की घड़ी निकट आ रही है ?"
--" देवी ! चिन्ता मत करो । कर्मों का फल तो जीव को भोगना ही पड़ता है। चिन्ता और संताप छोड़कर प्रभु-स्मरण करो, धर्म की आराधना करो और सत्पात्र को दान दो । विपत्तिकाल में धर्म ही सहायक होता है।"
सीताजी धर्म-साधना और दानादि में विशेष प्रवृत्त हई।
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