Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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कुल की प्रतिष्ठा ने सत्य को कुचला
बता कर, आपको व आपके उत्तम कुल को भी मलिन बनाने की चेष्टा कर रहे हैं । स्वामिन् ! यह सब झूठी बातें हैं, किंतु हैं, युक्तियुक्त । युक्तियुक्त असत्य की भी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए | नाथ ! आपको गंभीरतापूर्वक विचार कर के इस अपवाद मिटाना ही चाहिए ।"
विजय अधिकारी की बात सुन कर रामभद्रजी दुःखित हुए । उन्होने सोचा-मनः कल्पति युक्ति, पवित्र को भी पतित बना देती है । पवित्रता की रक्षा के लिए लोक-भ्रम मिटाने के लिए दुःसह्य स्थिति अपनानी पड़ती है । हा, कितनी विचित्र है -- लोकरुचि ?' उन्होंने धैर्य धारण कर कहा;
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“भद्र ! तुम्हारा कहना ठीक है । तुम हितैषी हो । राजभक्त जन के कर्त्तव्य का तुमने पालन किया है । मैं भी ऐसे कलंक को सहन नहीं करूँगा ।"
अधिकारीगण प्रणाम कर चले गये । उसी रात्रि को राम स्वयं गुप्त वेश में नगर में फिरे। उन्होंने भी वैसी ही कलंककथा सुनी और दुःखित हृदय से लौट आए। उन्होंने आते ही पुनः गुप्तचरों को लोक-प्रवाद जानने के लिए भेजा ।
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रामभद्रजी सोचने लगे--" कर्मोदय की यह कैसी विडम्बना है कि जिसके लिए मैंने सेना का संग्रह कर राक्षसकुल का विध्वंस किया, लक्ष्मण मरणासन्न दशा तक पहुँचा अनेक राजाओं को राजसुख छोड़ना पड़ा और युद्ध में सम्मिलित हो कर घायल होना पड़ा, जिसके पीछे लाखों मनुष्यों का रक्त बहा, वही सीता आज कलंकित की जा रही है । उस महासती पर असत्य दोषारोपण हो रहा है । हा, अब मैं क्या करूँ ? इस विपत्ति का निवारण किस प्रकार हो ?"
कुल की प्रतिष्ठा ने सत्य को
कुचला
प्रातःकाल लक्ष्मण, सुग्रीव, विभीषणादि रामभद्रजी को प्रणाम करने आये । उन्हें बिठा कर उनके सामने गुप्तचरों को बुलाया और नागरिकों में व्याप्त अपवाद सुनाया । गुप्तचरों की बात सुन कर लक्ष्मणजी आदि सभी उत्तेजित हो गए। में पर-निन्दा की रुचि होती है। उनका क्या, वे कभी कुछ और ही रहते हैं । मैं इस प्रकार मनःकल्पित झूठे दोषारोपण को मैं उन नीच मनुष्यों को उनकी नीचता का कठोर दण्ड दूंगा !"
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उन्होंने कहा ; -- लोगों
कभी कुछ यों पलटते सहन नहीं कर सकता ।
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