Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र
सेना को भी घायल तथा छिन्न-भिन्न कर दी। अपने अस्त्रों को व्यर्थं तथा सेना की दुर्दशा देख कर इन्द्रजीत ने हनुमान पर नागपाश फेंका, जिससे हनुमान पाँव से लगा कर मस्तक तक बँध गया । हनुमान, नागपाश तोड़ कर शत्रु पर विजय पाने में समर्थ थे । परंतु उन्हें रावण के पास पहुँच कर अपना सामथ्यं बताना था, इसलिए वे बँध गए । इन्द्रजोत हर्प एवं विजयोल्लासपूर्वक हनुमान को रावण के सामने लाया। रावण और अन्य राक्षसगण, प्रसन्नतापूर्वक वन्दी हनुमान को देखने लगे ।
हनुमान द्वारा रावण की अपभ्राजना
हनुमान को अपने सामने बन्धन में जकड़ा हुआ देख कर रावण कड़क उठा । हनुमान ने उसके पुत्र और अनेक योद्धाओं को मार डाला था। वह रोषपूर्ण भाषा में बोला ;
" क्यों रे दुष्ट ! तेरी बुद्धि कहाँ चली गई ? तू मेरा आश्रित है। भटकते हुए दरिद्र ऐसे राम-लक्ष्मण का साथ देने में तुने कौनसा लाभ देखा ? वे अस्थिर, निर्वासित, असहाय और वन- फल खा कर जीवन निर्वाह करने वाले हैं । उनके वस्त्र मलिन है। साधु के समान अकिंचन और किरात जैसे असभ्य हैं । उनका सहायक बनने से तुझे क्या मिलेगा ? तू क्या सोच कर यहाँ आया और इतना उधम मचाया तथा अपने प्राण संकट डाल दिये वे राम-लक्ष्मण बड़े धूर्त हैं । वे स्वयं दूर रहे और तुझे यहाँ धकेल दिया । अब तेरे ये बन्धन कौन छुड़ाएगा ? तू मेरा सेवक हो कर उनका दूत कैसे बना ?" --" दशाननजी ! तुम मुझे अपना सेवक समझते हो, यह तुम्हारी भूल है । मैं तुम्हारा स्वामित्व कब स्वीकार किया था ? तुम्हारा घमण्डी सामन्त खर, वरुण के कारागृह • पड़ा था, तब मेरे पूज्य पिताश्री ने उसे मुक्त कराया था। उसके बाद दूसरी बार तुम्हारी माँग होने पर में खुद तुम्हारी सहायता के लिए आया था और वरुण के पुत्रों के संकट से तुम्हारी रक्षा की थी । यह तुम्हें हमारी सहायता थी । हम तुम्हारे सेवक नहीं थे । अब तो तुम पाप, अन्याय और अनार्यकर्म करने वाले हो । ऐसे दुराचारी का साथ मैं क्यों देने लगा ? राम-लक्ष्मण के पक्ष में सत्य है, न्याय और नीति है, इसलिए मैं उनका साथी ही नहीं, सेवक हूँ। वे महान् हैं और मर्यादाशील हैं और तुम्हें तुम्हारे पाप का दण्ड देने में समर्थ हैं । उन्होंने मेरे द्वारा जो सन्देश दिया है, वह नीति का पालन करने के
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