Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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विभीषण को रावण और इन्द्रजीत से झड़प
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वाले समस्त सम्पत्ति के स्वामी ऐसे त्रिखण्डाधिपति के सामने आप इस प्रकार बोलते हैं ? मुझे लगता है कि आपका जीवन समाप्त होने की बड़ी आ पहुंची है। पहले भी आपने झूठ बोल कर पिताश्री को ठग लिया और दशरथ के वध की प्रतिज्ञा भंग कर उसे छोड़ दिया था। अब आप राम-लक्ष्मण जैसे भूचर का भय बता कर उन्हें बचाने का निर्लज्ज प्रयत्न कर रहे हैं। मुझे लगता है कि आप राम के पक्षपाती होगए हैं। राम ने आपको अपने पक्ष में मिला लिया है। इसलिए अब आप युद्ध मन्त्रणा में सम्मिलित करने के योग्य भी नही रहे।"
--इन्द्रजीत ! तू साहस कर रहा हैं । जरा न्याय-नीति को देख और परिणाम का विचार कर । जिन्हें तू उपेक्षित सम्झ रहा है, उन्होंने खर-दूषण जैसे महारथी को ससैन्य नष्ट कर दिया । साहसगति जैसे दुर्द्धर्ष योद्धा को मारडाला । तु भूल गया-उनके दूत हनुमान के पराक्रम की बात ? यह तो तेरे और सभी के सामने हुई । भरी सभा में वह बन्धन तोड़ कर और बन्धुवर के मस्तक पर लात मार कर, नगर के भवनों को नष्ट करता हुआ और हमारे प्रताप को रोंदता हुआ निरापद चला गया। इन प्रत्यक्ष घटनाओं को देख कर भी तू नहीं समझता और मुझे मूर्ख, भीरु और शत्रु-पक्ष में मिला हुआ समझता है ? वास्तव में तू स्वयं पितृकुल का नाशक है । तेरा पिता कामान्ध हो गया है । जरा न्याय-दृष्टि से देख । बन्धुवर ! समझो। मैं फिर निवेदन करता हूँ कि कुमति छोड़ो और सुमति अपनाओ। यह गया हुआ अवसर फिर नहीं आयगा'--विभीषण ने पुनः निवेदन किया।
__ विभीषण की हितशिक्षा ने रावण की क्रोधाग्नि में घृत का काम किया। उसके दुर्दिन आ गये थे । खडग ले कर विभीषण को मारने के लिए तत्पर हुआ। रावण को अपने पर झपटता हआ देख कर विभीषण भी कुद्ध हो गया। उसके पास कोई शस्त्र नहीं था । उसने वहीं से एक खभा उखाड़ लिया और रावण से लड़ने को तत्पर हो गया। दोनों बन्धुओं को आपस में लड़ते देख कर कुभकर्ण और इन्द्रजात, बीच-बचाव करने के लिए तत्पर हुए। उन्होंने दोनों को वहां से हटा कर अपने-अपने स्थान पर पहुंचाया। वहाँ से हटते समय रावण ने विभीषण से कहा ;
___ "विभीषण ! तू अब मेरी नगरी से निकल जा। अब तेरा यहाँ रहना, मेरे हित में नहीं होगा। तू वह आग है--जो अपने अ'श्रय को भी जला देती है।"
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