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________________ विभीषण को रावण और इन्द्रजीत से झड़प १६७ वाले समस्त सम्पत्ति के स्वामी ऐसे त्रिखण्डाधिपति के सामने आप इस प्रकार बोलते हैं ? मुझे लगता है कि आपका जीवन समाप्त होने की बड़ी आ पहुंची है। पहले भी आपने झूठ बोल कर पिताश्री को ठग लिया और दशरथ के वध की प्रतिज्ञा भंग कर उसे छोड़ दिया था। अब आप राम-लक्ष्मण जैसे भूचर का भय बता कर उन्हें बचाने का निर्लज्ज प्रयत्न कर रहे हैं। मुझे लगता है कि आप राम के पक्षपाती होगए हैं। राम ने आपको अपने पक्ष में मिला लिया है। इसलिए अब आप युद्ध मन्त्रणा में सम्मिलित करने के योग्य भी नही रहे।" --इन्द्रजीत ! तू साहस कर रहा हैं । जरा न्याय-नीति को देख और परिणाम का विचार कर । जिन्हें तू उपेक्षित सम्झ रहा है, उन्होंने खर-दूषण जैसे महारथी को ससैन्य नष्ट कर दिया । साहसगति जैसे दुर्द्धर्ष योद्धा को मारडाला । तु भूल गया-उनके दूत हनुमान के पराक्रम की बात ? यह तो तेरे और सभी के सामने हुई । भरी सभा में वह बन्धन तोड़ कर और बन्धुवर के मस्तक पर लात मार कर, नगर के भवनों को नष्ट करता हुआ और हमारे प्रताप को रोंदता हुआ निरापद चला गया। इन प्रत्यक्ष घटनाओं को देख कर भी तू नहीं समझता और मुझे मूर्ख, भीरु और शत्रु-पक्ष में मिला हुआ समझता है ? वास्तव में तू स्वयं पितृकुल का नाशक है । तेरा पिता कामान्ध हो गया है । जरा न्याय-दृष्टि से देख । बन्धुवर ! समझो। मैं फिर निवेदन करता हूँ कि कुमति छोड़ो और सुमति अपनाओ। यह गया हुआ अवसर फिर नहीं आयगा'--विभीषण ने पुनः निवेदन किया। __ विभीषण की हितशिक्षा ने रावण की क्रोधाग्नि में घृत का काम किया। उसके दुर्दिन आ गये थे । खडग ले कर विभीषण को मारने के लिए तत्पर हुआ। रावण को अपने पर झपटता हआ देख कर विभीषण भी कुद्ध हो गया। उसके पास कोई शस्त्र नहीं था । उसने वहीं से एक खभा उखाड़ लिया और रावण से लड़ने को तत्पर हो गया। दोनों बन्धुओं को आपस में लड़ते देख कर कुभकर्ण और इन्द्रजात, बीच-बचाव करने के लिए तत्पर हुए। उन्होंने दोनों को वहां से हटा कर अपने-अपने स्थान पर पहुंचाया। वहाँ से हटते समय रावण ने विभीषण से कहा ; ___ "विभीषण ! तू अब मेरी नगरी से निकल जा। अब तेरा यहाँ रहना, मेरे हित में नहीं होगा। तू वह आग है--जो अपने अ'श्रय को भी जला देती है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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