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वीभीषण राम के पक्ष में आया रावण के वचन सुनकर विभीषण घर आया और उसी समय अपने परिवार को ले कर लंका से निकलने लगा । विभीषण जैसे न्यायी और जन-प्रिय नेता के नगर-त्याग को भी अनिष्ट का विशेष चिन्ह मान कर, अनेक कुटुम्ब नगर-त्याग ने लगे। राक्षसों और विद्याधरों की बड़ी भारी-तीस अक्षोहिणी सेना भी रावण के पक्ष से निकल कर विभीषण के साथ हो गई। ये सब लंका का त्याग कर राम-लक्ष्मण के संन्य-शिविर की ओर चले । विभीषण को सेना सहित अपने शिविर की ओर आता देख कर सुग्रीव आदि विचार में पड़ गए । वे उनके उद्देश्य के प्रति सन्देहशील थे। विभीषण ने अपना एक दूत श्री रामभद्रजी के पास भेज कर, आने आगमन का उद्देश्य बतलाया । राम ने सुग्रीव की ओर देखा । मुग्रीव ने कहा;
___ "महानुभाव ! राक्षस लोग तो जन्म से ही विशेष मायावि तथा क्षुद्र होते हैं, नथा प विभीषण आ रहा है, तो आने दीजिये। हम उसके आशय का पता लगा कर योग्य उपाय कर लेंगे।"
सुग्रीव की बात सुन कर 'विशाल' नाम के एक विद्याधर ने कहा
"स्वामिन् ! विभीषण, सभी राक्षसों में उत्तम, न्यायप्रिय एवं धर्मात्मा है । में उसे जानता हूँ । सीता को स-सम्मान समर्पित करने की विभीषण की प्रार्थना पर क्रुद्ध हो कर रावण ने इसे निकाल दिया है और इसी से यह यहां आ रहा है । उस पर सन्देह करने को आवश्यकता नहीं है । उसका आना हमारे लिए लाभकारी ही होगा ।"
विशाल की बात सुन कर रामजी ने द्वारपाल को आज्ञा दी । विभीषण को आदर सहित शिविर में लाया गया। राम को देखते ही विभीषण प्रणाम करने के लिए झुका । रामभद्रजी उठे और विभीषण को भुजाओं में बाँध कर छाती से लगा लिया। विभीषण ने कहा
"देव ! में अपने अन्यायी ज्येष्ठ-बन्धु का साथ छोड़ कर आपकी सेवा में आया हूँ। आप मुझे भी सुग्रीवजी के समान अपना सेवक समझें और सेवा प्रदान करें।"
“नीति-निपुण महात्मन् ! आपके उदार एवं शुभ आशय से में प्रसन्न हूँ। आप ही उत्तम शासक बनने के योग्य हैं। हम लंका के राज्य-सिंहासन पर आप ही को प्रतिष्ठित करेंगे । आप प्रसन्नतापूर्वक हमारे सहायक रहें ।"
युद्धारंभ-नल-नील आदि का पराक्रम हंस द्वीप में आए दिन रह कर रामसेना ने लंका की ओर प्रयाण किया । लंका
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