Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जितपद्मा का वरण
के साथ शांतिपूर्वक समझौता कर के राज करने की सूचना की । किन्तु अतिवीर्य के मन पर मानमर्दन की गहरी चोट लगी थी। वे राज्य और संसार से विरक्त हो कर और अपने पुत्र विजयरथ को राज्य दे कर प्रव्रजित हो गए ।
विजयरथ ने अपनी बहिन रतिमाला, लक्ष्मण को दी और भरतजी की अधिनता स्वीकार की । और अपनी छोटी बहिन विजयसुन्दरी, भरतजी को अर्पित की।
अब श्री रामभद्रजी ने महीधर नरेश से प्रस्थान करने की आज्ञा माँगी । लक्ष्मणजी ने भी वनमाला से अपने प्रस्थान की बात कही, तो वह उदास हो गई और आंसू गिराती हुई बोली ; -
“यदि आपको मुझे छोड़ कर ही जाना था, तो उस समय क्यों बचाई ? मरने देते मुझे, तो यह वियोग का दुःख उत्पन्न ही नहीं होता । नहीं, ऐसा मत करिये । मेरे साथ लग्न कर के मुझे अपने साथ ले चलिये । अब मैं पृथक् नहीं रह सकती । " मनस्विनी ! मैं अभी पूज्य ज्येष्ठ भ्राता की सेवा में हूँ । तुम्हें साथ रखने पर मैं अपने कर्त्तव्य का पालन बराबर नहीं कर सकूंगा। मैं अपने ज्येष्ठ को इच्छित स्थान पर पहुँचा कर शीघ्र ही तुम्हारे पास आऊँगा और तुम्हें ले जाऊँगा । तुम्हारा निवास मेरे हृदय में हो चुका है । मैं पुनः यहाँ आ कर तुम्हें अपने साथ ले जाने की शपथ लेने को तत्पर हूँ ।" " इच्छा नहीं होते हुए भी वनमाला को मानना पड़ा। उसने लक्ष्मणजी को 'रात्रि भोजन के पाप' की शपथ लेने को कहा ।" लक्ष्मणजी ने कहा;
" जो मैं पुनः लौट कर यहाँ नहीं आऊँ, तो मुझे रात्रि भोजन का पाप लगे ।"
जितपद्मा का वरण
इसके बाद पिछली रात को रामत्रय ने वहाँ से प्रस्थान किया और वन-पर्वत तथा नदी-नाले लांघते हुए 'क्षेमाँजलि' नामक नगर के समीप आये । उद्यान में विश्राम किया, फिर लक्ष्मण के लाये हुए और सीता द्वारा साफ कर के सुधारे हुए वनफलों का आहार किया । इसके बाद लक्ष्मणजी ने नगर प्रवेश किया। नगर के मध्य में पहुँचने पर उन्हें एक उद्घोषणा सुनाई दी ; --
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'जो वीर पुरुष ! महाराजाधिराज के शक्ति प्रहार को सहन कर सकेगा । उसे नरेन्द्र अपनी राजकुमारी अर्पण करेंगे ।"
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