Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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पाँच सौ साधुओं को पानी में पिलाया
मँगवा कर वहीं गड़वा दिया और आचार्य स्कन्दक के सामने एक-एक साधु को पिलने लगा। पिलते समय साधओं को स्कन्दकजी ने उपदेश दे कर आराधना में तल्लीन बनाया। सभी उच्च भावों में रमण करते हुए, श्रेणि का आरोहण कर, घाति-कर्मों को नष्ट कर दिये और पिलाते हुए केवलज्ञान पाये, तथा बाद में योग-निरोध कर मोक्ष प्राप्त हए । शेष रहे आचार्य और उनका लघुशिष्य। आचार्य ने पालक से कहा--"पहले मुझे पेर लो, इस बालक को बाद में पेरना । मैं इस बाल-मुनि का पेरा जाना नहीं देख सकूँगा।"
पालक के मन में उत्कट वैर था। वह आर्य स्कन्दकजी को अत्यधिक दुःखी देखना चाहता था। उसने उनकी मांग ठुकरा दी और बालमुनि को पेरना प्रारम्भ किया। आचार्य ने भी अंतिम प्रत्याख्यान तो किये, किंतु पालक की दुष्टता को सहन नहीं कर सके। उन्होंने द्वेषपूर्ण भावों से निदान किया;--
" मेरी तपस्या के फलस्वरूप, मैं दण्डक राजा, पालक, इनके कुल तथा देश को नष्ट करने वाला बनूं । मेरे ही हाथों ये सभी छिन्न-भिन्न होवें।"
इस प्रकार निदान करते और इन्हीं भावों में लीन बने आचार्य स्कन्दकजी को पालक ने पिलवा दिया। आचार्य मृत्यु पा कर अग्निकुमार जाति के भवनपति देव रूप में उत्पन्न हुए।
पाँच सौ मुनियों को पानी में पेर कर हत्या करने के कारण वह सारा उद्यान ही मांस और हड्डियों का ढेर बन गया। रक्त की नदी बह चली। मांसभक्षी कुत्ते श्रृगाल आदि आ-आ कर भक्षण करने लगे। चील, कौए, गिद्ध आदि पक्षी भी भक्ष को चोंच एवं पाँवों में भर कर उड़ने लगे।
रानी पुरन्दरयशा--जो स्कन्दाचार्य की बहिन थी, अपने भवन में बैठी थी। उसे इस मुनि-संहार रूपी घोरतम हत्याकांड का पता भी नहीं था। अचानक उसके सामने, भवन के आँगन में रक्त एवं मांस के लोथड़ों से सना हुआ रजोहरण गिरा । एक पक्षी रजोहरण को ही, रक्तमांस लिप्त होने के कारण हाथ का हिस्सा या आंत के भ्रम में उठा कर उड़ गया था । वह उसे सम्भाल नहीं सका और उसके पांवों से छूट कर अन्तःपुर के आंगन में गिरा । रानी उसे देख कर चौंकी। उसने पता लगाया तो इस घोरतम हत्याकाण्ड का पता लगा । इस महापाप से उस रानी को गम्भीर आघात लगा। वह रुदन करती हुई राजा की घोर निन्दा करने लगी। शोकग्रस्त रानी को कोई व्यन्तर देवांगना उठा कर ले गई और भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी के समवसरण में रख दी। वहां उसने बोध प्राप्त कर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली।
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