Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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सिंहोदर का पराभव
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पालन करना तुम्हारा कर्तव्य है । तुम मेरी आज्ञा की अवहेलना नहीं कर सकते ।"
__ उन्होंने सीताजी को संकेत किया । वे जल का कलश भर लाई । रामचन्द्रजी ने भरतजी को पूर्व की ओर मुंह कर के बिठाया और अपने हाथों से उनके मस्तक पर जलधारा दे कर उन्हें 'अयोध्यापति' घोषित किया । जयध्वनि की और विसर्जित किया है। सभी जन दुखित-हृदय से चले जाते हुए रामत्रय को देखने लगे। उनके दृष्टि ओझल होते ही भरतादि उदास हृदय से अयोध्या आये । भरतजी से रामचन्द्र के समाचार जान कर दशरथजी ने कहा--"पुत्र ! राम आदर्शवादी है । अपने वंश के गौरव की रक्षा करने में वह अपना जीवन भी दे सकता है । अब तुम राज्य-धुरा को धारण करो और मुझे निवृत्त कर के संयम-धुरा धारण करने दो।"
भरतजी, कर्तव्य-बुद्धि से राज्य का संचालन करने लगे। दशरथजी, महामुनि सत्यभूतिजी के समीप प्रव्रज्या स्वीकार कर के साधना में जुट गए ।
सिंहोदर का पराभव
भरतजी का वन में ही राज्याभिषेक कर रामत्रय दक्षिण की ओर चल दिये। चलते-चलते वे महामालव भूमि में पहुँचे । एक वट वृक्ष के नीचे बैठ कर राम ने भरत से कहा;
यह प्रदेश अभी थोड़े दिनों से उजाड़ हुआ लगता है । देखो, ये उद्यान सूख रहे हैं, किन्त पानी की तो न्यूनता नहीं लगती । इक्षु के खेत सूख रहे हैं, खलों में धान्य यों ही पड़ा है, जिसे सम्भालने वाला कोई दिखाई नहीं दे रहा । लगता है कोई विशेष प्रकार का उपद्रव इस प्रदेश पर छाया हुआ है । उसी समय उधर से एक पथिक निकला । राम ने उससे पूछा--"भद्र ! इस प्रदेश में यह श्मशान-सी निस्तब्धता क्यों है ? बिना सम्भाल के ये खेत क्यों सूख रहे हैं ? इन खलों के स्वामी कहां चले गए ? यह प्रदेश उजाड़ जैसा वयों लग रहा है ?"
पथिक ने कहा--" यह महामालव का अवंति देश है । इसका सिंहोदर नाम का महा पराक्रमी शासक है । दशांगपुर नगर भी इसके राज्य में ही हैं, किंतु वहाँ इसका सामन्त
अन्य ग्रंथों में भरत द्वारा रामचन्द्रजी की चरणपादुका राज्य-सिंहासन पर स्थापित करने और रामचन्द्रजी के नाम से, स्वयं अनवर की भांति राज्य चलाने का अधिकार है, किंतु त्रि. श.पु.. में ऐसा उल्लेख नहीं है।
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